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जनवरी 11, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

आमा का कहानी संसार

कहानी कहने के लिए पात्रों के बारे में इतना क्यों सोचना पड़ता है ? बड़ी देर से एक अधूरी कहानी को हाथ में लिए सोच रहा था. तभी अचानक आमा (दादी) की याद आ गई , बचपन में जब हम आमा से कहानी सुनाने की जिद्द करते , तो वो बिना किसी पात्र के बारे में सोचे कहानी की शुरुआत कर देती थी. पात्र जैसे हमारे बीच से ही उठकर कहानी को आगे खींचते चलते. उन कहानियों के पात्र कभी अकाल्पनिक नहीं लगते थे. हमारे आसपास , गांव-देहात के पात्र आमा की कहानी संसार में रचे-बसे होते. उन पात्रों से हम सभी बच्चे भलीभांति परिचित होते , जुड़ जाते , गांव के कई लोगों को हम उन्हीं पात्रों के नाम से बुलाते. आज भी आमा की कहानियों के कई पात्रों से यदा-कदा भेंट हो ही जाती है. बुढ़िया आमा के जाने के बाद आज तक समझ नहीं आया की उनके पास कहानियों का इतना भंडार आया कहां से! न आमा कभी स्कूल गयी , न उसने चेखव , गोर्की , टॉलस्टॉय , प्रेमचंद्र इत्यादि को पढ़ा. आमा की कहानियों में किस्सागोई होती , फसक (गप्पों) में तो आमा का कोई सानी नहीं था. गांव की औरतें आमा को तलबाखई फसकी बुढ़िया कहते. अगर आमा ने कलम पकड़ी होती तो ‘ क्याप ’ से बड़ी फसक