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जनवरी, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
अंधविश्वास की सामाजिक जकड़न हमारा विश्वास ही अंधविश्वास में तब्दील होता है। बचपन में कई तरह का विश्वास मसलन, आम के पेड़ के नीचे मत जाना, वहां भूत रहता है। दोपहर में अकेले उस रास्ते पर चलने से छल लगता है। घर से बाहर निकलते वक्त छींकना , बिल्ली का रास्ता काटना और रोना अशुभ होता है। और न जाने क्या-क्या लंबी फेहरिस्त है ! अरे हां, एक और शामिल है इस लिस्ट में- आंख का फड़कना। लेकिन, धीरे-धीरे जब हम चीज़ों के ऊपर सोचने की प्रक्रिया से गुजरने लगे तो लगा, अरे यह तो निरी मुर्खता है। कोई छींक दे तो क्या हम अपना महत्वपूर्ण काम टाल देंगे ? बिल्ली रास्ता काट देगी तो क्या हम पेपर देने नहीं जाएंगे ? बहुत बार दिल नहीं माना, लेकिन काम इतना महत्वपूर्ण था कि उसे जबर्दस्ती मनाया। जैसे मंगलवार को शराब न पीने वाले, अगर पी लें तो, पहली भूल हनुमान जी भी माफ करते हैं, कहकर मन को मना लेते हैं। बचपन में सुनी और विश्वास की गई ऐसी ही कितनी चीज़े कई सालों तक अंधविश्वास बनकर साथ चलती रही। फिर सोचा, भई बिल्ली को भी रास्ते पर चलने का अधिकार है । छींक का आना स्वभाविक है, सर्दी लगने पर, नाक में धुल-मिट्टी जाने प

‘धर्म’ का उद्देश्य मानवता का सुख

स्वामी विवेकानंद के व्यक्तित्व, महानता और दर्शन को एक लेख में बांधना संभव नहीं है. फिर भी स्वामी जी के उपदेशों में से ‘ धर्म ’ पर उनकी व्याख्या को उद्धरित किया जा रहा है. स्वामी जी को पढ़ने के दौरान इसी ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया.     वैसे तो स्वामी जी की सभी शिक्षाएं व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास के लिए महत्वपूर्ण है. लेकिन उनकी ‘ धर्म ’ की व्याख्या हमें सही मायने में इंसानियत और इंसान का पाठ समझाती हैं. स्वामी जी मनुष्य को सुखी बनाने वाले धर्म को ही वास्तविक धर्म की संज्ञा देते थे. वो अपने शिष्यों से कहते थे कि जो धर्म मनुष्य को सुखी नहीं बनाता, वो वास्तविक धर्म है ही नहीं. उसे मन्दाग्निप्रसूत रोग विशेष समझो ’. स्वामी जी कहते थे, धर्म वाद-विवाद में नहीं है, वो तो प्रत्यक्ष अनुभव का विषय है. जिस प्रकार गुड़ का स्वाद खाने में है, उसी तरह ‘ धर्म ’ को अनुभव करो, बिना अनुभव किए कुछ भी न समझोगे. स्वामी जी अपने शिष्यों से अक्सर कहा करते थे- “ धर्म का मूल उद्देश्य है मनुष्य को सुखी करना. किंतु परजन्म में सुखी होने के लिए इस जन्म में दु : ख भोग करना कोई बुद्धिमानी का काम नहीं ह

आमा का कहानी संसार

कहानी कहने के लिए पात्रों के बारे में इतना क्यों सोचना पड़ता है ? बड़ी देर से एक अधूरी कहानी को हाथ में लिए सोच रहा था. तभी अचानक आमा (दादी) की याद आ गई , बचपन में जब हम आमा से कहानी सुनाने की जिद्द करते , तो वो बिना किसी पात्र के बारे में सोचे कहानी की शुरुआत कर देती थी. पात्र जैसे हमारे बीच से ही उठकर कहानी को आगे खींचते चलते. उन कहानियों के पात्र कभी अकाल्पनिक नहीं लगते थे. हमारे आसपास , गांव-देहात के पात्र आमा की कहानी संसार में रचे-बसे होते. उन पात्रों से हम सभी बच्चे भलीभांति परिचित होते , जुड़ जाते , गांव के कई लोगों को हम उन्हीं पात्रों के नाम से बुलाते. आज भी आमा की कहानियों के कई पात्रों से यदा-कदा भेंट हो ही जाती है. बुढ़िया आमा के जाने के बाद आज तक समझ नहीं आया की उनके पास कहानियों का इतना भंडार आया कहां से! न आमा कभी स्कूल गयी , न उसने चेखव , गोर्की , टॉलस्टॉय , प्रेमचंद्र इत्यादि को पढ़ा. आमा की कहानियों में किस्सागोई होती , फसक (गप्पों) में तो आमा का कोई सानी नहीं था. गांव की औरतें आमा को तलबाखई फसकी बुढ़िया कहते. अगर आमा ने कलम पकड़ी होती तो ‘ क्याप ’ से बड़ी फसक