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आखिर क्यों उदासीन हो गई है पुलिस....?

पुलिस अपनी छवि कब सुधारेगी? या पुलिस की छवि कब सुधरेगी? यह स्वाभाविक यक्ष प्रश्न जवान से लेकर बुढ़े हर उस इंसान के जेहन में ज़रूर कौंधता होगा जो अपने जीवन-काल में चौकी और थाने की चौखट देख आया हो या फिर किसी ना किसी रूप में खादी वर्दी से उसका वास्ता पड़ा हो।  अमूमन ज्यादातर लोग गंभीर घटनाओं और आपराधिक वारदातों से पहले सिर्फ इसलिए वर्दी वालों के दहलीज पर कदम नहीं रखते, क्योंकि वहां आरोपी से ज्यादा सख्ती पीड़ित के साथ दिखाई जाती है। यह मात्र संयोग नहीं बल्कि व्यवस्थागत खामी का एक अहम पहलू है कि अपराधियों के खौफ के साथ-साथ पुलिस की उदासीनता का भय भी लोगों में सिहरन पैदा कर देता है। बात जब उत्तर प्रदेश को लेकर की जाए तो आपराधिक मामलों के साथ ही यहां पुलिस की असहिष्णुता, उदासीनता और खौफनाक चेहरे के कई किस्से आपके जेहन में ताजा हो उठेंगे। उत्तम प्रदेश बनाने का सपना संजोए युवा मुख्यमंत्री चाहे कानून-व्यवस्था की लाख दुहाई दे लें। पुलिस की तारीफ में कसीदें पढ़ लें, लेकिन उनके सरकारी मुलाजिम और जनता के रक्षक अपने व्यवहार और उदासीन छवि की वजह से जनता से कोसों दूर हो गए हैं। आम जनता की धारणा ब

लोकतांत्रिक संस्थाओं के पतन पर शानदार व्यंग्य है 'नौटंकी राजा'

इस गुरुवार को दिल्ली के गोल मार्कट स्थित मुक्तधारा ऑडिटोरियम में व्यंग्य नाटक 'नौटंकी राजा' का मंचन हुआ। भारतेंदु नाट्य अकादमी से स्नातकोत्तर रंगकर्मी भूपेश जोशी ने नाटक का निर्देशन किया। नाटक राजनीतिक, सामाजिक और लोकतांत्रिक मूल्यों में हो रहे पतन पर करारी चोट करता है। नाटक को युवा लेखक अनुज खरे ने लिखा है। नौटंकीपुर राज्य के राजा का देहांत हो गया है। राज्य की सलेक्शन समिति विदूषक को राज्य के लिए नया राजा खोजने का जिम्मा सौंपती है। विदूषक पूरे देशभर में भ्रमण कर कुछ चुने हुए लोगों को सलेक्शन कमेटी के पास लेकर पहुंचता है और उनकी खासियत से समिति को रू-ब-रू कराता है। अंत में सलेक्शन कमेटी विदूषक को ही नौटंकीपुर राज्य का राजा घोषित कर देती है। सलेक्शन कमेटी सभी कैंडिडेट को देखने के बाद फैसला करती है कि ये तो अपने-अपने धंधों में ही नौटंकी कर सकते हैं, लेकिन हमारा विदूषक तो ऑलराउंडर है। सभी क्षेत्रों में पक्का नौटंकीबाज है इसलिए नौटंकीपुर राज्य के लिए ये ही उपयुक्त राजा होगा। इस तरह एक बार फिर नौटंकीपुर राज्य अस्तित्व में आ जाता है। नाटक में विदूषक का किरदार मयंक ने निभा

समाजवादी मूल्यों का पर्व है 'हरेला'

हरेला सिर्फ एक त्योहार न होकर उत्तराखंड की जीवनशैली का प्रतिबिंब है। यह प्रकृति के साथ संतुलन साधने वाला त्योहार है। प्रकृति का संरक्षण और संवर्धन हमेशा से पहाड़ की परंपरा का अहम हिस्सा रहा है। हरियाली इंसान को खुशी प्रदान करती है। हरियाली देखकर इंसान का तन-मन प्रफुल्लित हो उठता है।  इस बार हरेला 17 जुलाई को है। इस दिन पहाड़ी राज्य उत्तराखंड और वहां के मूल निवासी चाहे वो किसी भी शहर में बसे हो हरेले के त्योहार को मनाएंगे।  नैनीताल विश्वविद्याल से समाजशास्त्र में पीएचडी कर रही नीतू का कहना है कि हरेले के त्योहार में व्यक्तिवादी मूल्यों के स्थान पर समाजवादी मूल्यों की वरियता दिखती है। क्योंकि, इस त्योहार में हम अपने घर का हरेला (समृद्धि) अपने तक ही सीमित न रखकर उसे दूसरे को भी बांटते हैं। यह विशुद्ध रूप से सामाजिक भलमनसाहत की अवधारणा है।  हरेले के त्योहार में भौतिकवादी चीज़ों की जगह मानवीय गुणों को वरियता दी गई है। मानवीय गुण हमेशा इंसान के साथ रहते हैं जबकि भौतिकवादी चीज़ें नष्ट हो जाती हैं। जहां आज प्रकृति और मानव को परस्पर विरोधी के तौर पर देखा जाता है वहीं, हरेले का त्योहार म

बाल श्रम के बोझ तले दबा 'मंटुस'

यह सिर्फ 'मंटुस' की कहानी नहीं है! मंटुस जैसे हज़ारों बच्चे इसी तरह बाल श्रम के कार्य में लगे हुए हैं। अच्छे दिन इनके लिए दिवास्वप्न है। मालिक की मार, ज़लालत और भद्दी गालियां रोज की रोटी-पानी! यह फिल्म सिटी का मंटुस है। ऐसा भी नहीं है कि यह सिर्फ अकेला एक मंटुस यहां है। ठेलों और चाय की दुकान पर अनेक 'मंटुस' आपको मिल जाएंगे। बड़ा चैनल और बड़ी सैलरी से पत्रकारीय ज्ञान और खुद को पत्रकार समझने वाले अनेक बंधु-बांधव बड़े सहज भाव से बेटा बोलकर इनसे सिगरेट और चाय की फरमाइश करते हैं! इस चैनलिया नगरी में बाल श्रम के क्षेत्र में कार्य करने वाले कई दिग्गज रोज आते हैं और टीवी में बड़ी-बड़ी लफ्फाजी करके अपने महंगी और आलीशान कार में इन जैसे मंटुस की आखों के आगे से फुर्र हो जाते हैं। एक साल में पहली बार मंटुस की आंखों में आज इस कदर उदासी छाई देखी तो बिना कारण पूछे मन रह नहीं पाया। मंटुस के बाल सुलभ मन ने आज मालिक के प्रति बगावत का बिगुल बजा दिया है। हो सकता है अब कुछ ही दिनों में मंटुस मालिक की नौकरी छोड़ अपने घर की तरफ रवाना हो जाए। लेकिन, नई नौकरी खोजने की जद्दोजहद और मालिक क

अपनों के बिना 'वीरान पहाड़'

पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में जीविकोपार्जन की जटिलता, संघर्ष और रोजगार के समुचित अवसर न होने ने पलायन को बढ़ावा दिया है। यहां जीवन सूर्योदय और सूर्यास्त नहीं, बल्कि रात को वो घना तिमिर है, जब प्रकृति की हरियाली भी सघन अंधेरे से ढक जाती है। ग्रामीण आबादी रोज़गार की तलाश और सुविधासंपन्न जीवन के लिए शहरों में जा रही है। खेत-खलिहान बंजर होते जा रहे हैं। गांवों के गांव खाली हो गए हैं। विकास के सही रोडमैप के अभाव, नीति-नियंताओं और हुक्मरानों की निष्क्रियता, दूरदृष्टि और सही विजन की कमी ने जिस परिकल्पना से इस पहाड़ी राज्य का गठन हुआ था, उस पर बट्टा लगा दिया है। राज्य में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और लूट-खसोट का 'खुला खेल फर्रुखाबादी' नेताओं की नाक के नीचे फल-फूल रहा है। ग्रामीण क्षेत्र में परियोजनाओं के नाम पर सारा धन ग्राम प्रधान, वन पंचायत और पटवारी निगल रहे हैं। मिड-डे मील के नाम पर स्कूलों के लिए भेजा जाने वाला राशन अध्यापक और रसोइए के घरों में जा रहा है। एक करोड़ से ज़्यादा आबादी वाले उत्तराखंड में विकास की वाह्य कल्पना तो सफल है, लेकिन भीतर से खोखली है। पर्यटन स्थल और अति व

क्या जानवरों से भी हिंसक और क्रूर हो गया है इंसान?

देश की राजधानी दिल्ली में सरेआम सड़क पर पीट-पीटकर डीटीसी बस के ड्राइवर की हत्या की घटना ने साबित कर दिया है कि इंसान पशुओं से भी ज़्यादा क्रूर और निर्दयी हो गया है। इंसान ने दया, क्षमा और परोपकार की भावनाओं को बिसरा दिया है और हिंसक प्रवृत्ति उसकी आवृत्ति बन गई है। यह कोई पहली घटना नहीं है, जहां इंसान का जानवरों से भी हिंसक और निर्दयी स्वरूप उभरकर समाज के सामने आया हो। इससे पहले दिल्ली का तुर्कमान गेट रोड रेज का गवाह रहा है। अपने आस-पास के माहौल में भी आप पाएंगे कि धैर्य खोकर लड़ना-झगड़ना और एकदम से उग्र हो जाना इंसानी स्वभाव का अहम हिस्सा बनता जा रहा है। बेहद मामूली चीज़ों पर दूसरे की जान ले लेना मानों कोई जुर्म ही न हो? अखबारों और समाचार चैनलों पर 'मामूली विवाद पर हत्या' की लाइन आम हो गई है। सड़क पर किसी से मामूली-सी बहस में कौन, कब किसकी जान ले ले किसी को नहीं पता? डीटीसी की घटना में अपराधी तो अपने अपराध के लिए दोषी है ही साथ ही मैं मूकदर्शक जनता क्या कम अपराधी है? जनता और कंडक्टर के सामने हेलमेट और ऑक्सीजन सिलेंडर से अशोक को मारा जाता है और लोग तमाशबीन बने रहते हैं।

स्त्री है वह

स्त्री है वह वह फ़िलहाल अकेला रहना चाहती है धीरे-धीरे गहराते  इस निविड़ अंधेरे में  खो जाना चाहती है जो चाहती है वह क्या अच्छी तरह जानती है वह उदास है वह क्यों उदास है वह सब पर भरोसा नहीं कर सकती स्त्री है वह लंपट समाज में देह की सुरक्षा  चुनौती है उसके लिए वह जल्दी नाराज़ नहीं होती कोई उसके मादापन के चटखारे भरे तो वो क्या करे वह प्रकृति को निहारती है वह किसी की तलाश में है धोखे भरी दुनिया में  किसी आत्मीय सच की  तलाश में वह निकल पड़ती है अकेली जनशून्य राहों पर वह भटकती है भटकते-भटकते बंद हो जाती है  अपनी आत्मा के अभेद्य दुर्ग में। - मनोज कुमार झा मनोज कुमार झा की प्रवृत्ति छपास की नहीं है...बहुत निवेदन करने के बाद उनकी कुछ कविताएं और गजलों को हासिल कर पाया हूं। दैनिकभास्करडॉटकॉम, भोपाल में कॉपी एडिटर के पद पर कार्यरत हैं। हर रोज एक कविता या कुछ न कुछ किसी मुद्दे पर लिखते हैं...लेकिन इतने सालों तक कविता प्रकाशित कराने का ख्याल उनके मन में नहीं आया...पूछने पर कहते हैं... ...'कविता प्रकाशित कराने का ख्याल कभी आया ही नहीं, बस लिखने का ही ख्याल

मनोज कुमार झा की ग़जलें

मनोज कुमार झा की ग़जलें पांव देखे पांवों के निशां देखे कैसे-कैसे हमने भी जहां देखे। - मनोज कुमार झा सांझ घिर आई तो तेरा संवरना देखा रात की बांहों में ये किसका मचलना देखा। देखने की हसरत जो रह गई हसरत ही जागते हुए शायद ये मैंने कोई सपना देखा। - मनोज कुमार झा मन है मौसम पतझड़ की तरह कहीं धूल में गुबार के भटकना है। - मनोज कुमार झा यूं ही भटकने में बीती है ये तमाम रात यहां-वहां कभी, कभी क्या तेरे पास। - मनोज कुमार झा जिन्हें हम याद करते हैं कभी वो याद क्या करते ये फ़ितरत है तुम्हारी जो फ़िर भी जां हम देते हैं। - मनोज कुमार झा ये कैसा दर्द का समंदर था आग़ जलती धुआं-धुआं-सी थी। घेर कर हर तरफ़ से क्या कहा कहानी ये कितनी बेबयां-सी थी। - मनोज कुमार झा मौन ही चित्रलिखित है रात की स्याही में तुम करो बात ना बात वो बेमानी है। - मनोज कुमार झा नज़रें मिलीं तो फ़िर बेक़रार क्यों हुईं क्या खेल ऐसा हुआ दो-चार जो हुईं। - मनोज कुमार झा जैसे नदी जलती हुई फ़िर समा गई पहाड़ों में अब समंदर सोखने की उनकी हसरत लाजवाब। - मनोज कुमार झा उनसे मिलना जो हुआ होता दिल ये आईना ज

-दूब

मनोज कुमार झा की कविताएं..  1-दूब हम उगेंगे और एक हरे विस्तार में बदल जाएंगे हम उगेंगे कई-कई गीली और भिगो देने वाली रातों के बाद हमारा उगना चिड़िया के गीतों और बच्चों की किलकारियों में गूंजेगा हम धरती के ओर-छोर तक लगातार उगते रहेंगे। - मनोज कुमार झा (रचना वर्ष - 1989) 2- सांझ एक नदी है सांझ एक नदी है थिर जल में परछाइयां हैं अनुभवों का रूपाकार उद्घटित होता है कई रंगों के मेल से बने बिंब प्रतिबिंबित होते हैं तुम्हारा प्रेम घुल गया है निर्विकार वहां बहुतेरे सन्नाटे सिसकियों की अनुगूंजें विस्मृतियों से निकल चोटिल करती लहराती हैं डूबता हूं इस सांझ में तो तैरता शव नग्न स्त्री का... इस सांझ को यहां देखो इस किनारे पेड़ पर लटक रही है लाश नग्न बालिका की बलत्कृत नदी किनारे फूंक दी जाती है होता है ब्रह्मभोज बलत्कृत आत्मा की मुक्ति के लिए इस नदी के पार पहाड़-सी रात है। मनोज कुमार झा की प्रवृत्ति छपास की नहीं है...बहुत निवेदन करने के बाद उनकी कुछ कविताओं को हासिल कर पाया हूं। दैनिकभास्करडॉटकॉम, भोपाल में कॉपी एडिटर के पद पर क

'आप' की मुश्किल बना आवाम

दिल्ली विधानसभा चुनाव के हो-हल्ले के बीच 'कांग्रेस' मेरे लिए चिंता का विषय बनी हुई है। चिंता इस बात की है कि क्या कांग्रेस का अस्तित्व खत्म हो गया है? या फिर मीडिया ने कांग्रेस को बिसरा दिया है। कांग्रेसी नेता क्या पहले से ही अपने को दिल्ली फतेह के युद्ध से बाहर कर चुके हैं। इस चुनाव को लेकर कांग्रेस न तो गंभीर दिख रही है और ना ही मुखर। कांग्रेस की इस सुस्ती की वजह से दिल्ली चुनाव पूर्णत: आम आदमी पार्टी और बीजेपी के बीच का बन गया है। यह चुनाव केजरी बनाम बेदी नहीं, मोदी ही है। ये तो बीजेपी भी जान ही गई है कि बेदी को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाकर पेश करने से उन्हें उनकी सोच के मुताबिक फायदा बिल्कुल नहीं मिला और ना ही मिलने वाला है, मोदी प्रचार ही असल सहारा है। दूसरी तरफ, आम आदमी पार्टी की मुश्किलें आने वाले दिनों में और बढ़ने वाली हैं। विज्ञापन वार में तो केजरीवाल ने सटीक दांव-पेंच खेलकर बीजेपी का पसीना छुटा दिया था। पार्टी दिल्ली में बनिया वोट खिसकने के भय से आशंकित हो उठी थी, लेकिन फर्जी कंपनी से चंदा लेने और मनी लॉन्ड्रिंग के आरोप ने 'आप' को चौतरफा घेर लिया है। इसक

नुक्कड़ बहस- दिल्ली का दंगल

दिल्ली विधानसभा चुनाव भारत की राजनीति का 'राम-रावण' युद्ध से कमतर नहीं है। हालांकि, राम-रावण युद्ध और दिल्ली विधानसभा चुनाव में कोई साम्य नहीं है, लेकिन कार्यकर्ता हर उस चीज में साम्य बना देते हैं, जिससे वो अपनी बात और बेहतर तरह से कर पाएं। 'राम-रावण युद्ध' बिल्कुल नई टर्मिनॉलोजी है। लेकिन, इससे आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह बात किस पार्टी के समर्थक ने कही होगी।-- चाय की दुकान पर पार्टी कार्यकर्ता होने का फर्ज निभा रहे उस व्यक्ति से बात का भावार्थ समझते हुए जब पूछने की कोशिश की गई कि 'राम-रावण' युद्ध में 'बेदी' कहां ठहरती है? तो उसने बिना किसी हिचक के कहां- 'बलि का बकरा'.. पढ़े लिखे उस पार्टी कार्यकर्ता ने बाकायदा अंग्रेजी उच्चारण किया- स्कैप्गोट (Scapegoat) । उसकी बात से बचपन में पढ़े बांकेलाल की कॉमिक्स 'बलि का बकरा' याद आ गई! राजनीति ज्ञान में माहिर उस व्यक्ति ने फरमाए..चुनाव जीते तो जय मोदी...नमो..नमो और हारे तो बलि की 'बेदी'! घर बना राजनीति का अखाड़ा दिल्ली विधानसभा चुनाव की तारीख की घोषणा होते ही अपना घर भी