मनोज कुमार झा की कविताएं..
1-दूब
हम उगेंगे
और एक हरे विस्तार में बदल जाएंगे
हम उगेंगे
कई-कई गीली
और भिगो देने वाली रातों के बाद
हमारा उगना
चिड़िया के गीतों
और बच्चों की किलकारियों
में गूंजेगा
हम धरती के
ओर-छोर तक
लगातार
उगते रहेंगे।
- मनोज कुमार झा
(रचना वर्ष - 1989)
2- सांझ एक नदी है
सांझ एक नदी है
थिर जल में
परछाइयां हैं
अनुभवों का रूपाकार
उद्घटित होता है
कई रंगों के मेल से
बने बिंब प्रतिबिंबित होते हैं
तुम्हारा प्रेम
घुल गया है
निर्विकार
वहां बहुतेरे सन्नाटे
सिसकियों की
अनुगूंजें
विस्मृतियों से निकल
चोटिल करती लहराती हैं
डूबता हूं
इस सांझ में
तो तैरता शव
नग्न स्त्री का...
इस सांझ को
यहां देखो
इस किनारे पेड़ पर
लटक रही है लाश
नग्न बालिका की
बलत्कृत
नदी किनारे
फूंक दी जाती है
होता है ब्रह्मभोज
बलत्कृत आत्मा की
मुक्ति के लिए
इस नदी के पार
पहाड़-सी रात है।
मनोज कुमार झा की प्रवृत्ति छपास की नहीं है...बहुत निवेदन करने के बाद उनकी कुछ कविताओं को हासिल कर पाया हूं। दैनिकभास्करडॉटकॉम, भोपाल में कॉपी एडिटर के पद पर कार्यरत हैं। हर रोज एक कविता या कुछ न कुछ किसी मुद्दे पर लिखते हैं...लेकिन इतने सालों तक कविता प्रकाशित कराने का ख्याल उनके मन में नहीं आया...पूछने पर कहते हैं...
...'कविता प्रकाशित कराने का ख्याल कभी आया ही नहीं, बस लिखने का ही ख्याल आता है।'
1-दूब
हम उगेंगे
और एक हरे विस्तार में बदल जाएंगे
हम उगेंगे
कई-कई गीली
और भिगो देने वाली रातों के बाद
हमारा उगना
चिड़िया के गीतों
और बच्चों की किलकारियों
में गूंजेगा
हम धरती के
ओर-छोर तक
लगातार
उगते रहेंगे।
- मनोज कुमार झा
(रचना वर्ष - 1989)
2- सांझ एक नदी है
सांझ एक नदी है
थिर जल में
परछाइयां हैं
अनुभवों का रूपाकार
उद्घटित होता है
कई रंगों के मेल से
बने बिंब प्रतिबिंबित होते हैं
तुम्हारा प्रेम
घुल गया है
निर्विकार
वहां बहुतेरे सन्नाटे
सिसकियों की
अनुगूंजें
विस्मृतियों से निकल
चोटिल करती लहराती हैं
डूबता हूं
इस सांझ में
तो तैरता शव
नग्न स्त्री का...
इस सांझ को
यहां देखो
इस किनारे पेड़ पर
लटक रही है लाश
नग्न बालिका की
बलत्कृत
नदी किनारे
फूंक दी जाती है
होता है ब्रह्मभोज
बलत्कृत आत्मा की
मुक्ति के लिए
इस नदी के पार
पहाड़-सी रात है।
मनोज कुमार झा की प्रवृत्ति छपास की नहीं है...बहुत निवेदन करने के बाद उनकी कुछ कविताओं को हासिल कर पाया हूं। दैनिकभास्करडॉटकॉम, भोपाल में कॉपी एडिटर के पद पर कार्यरत हैं। हर रोज एक कविता या कुछ न कुछ किसी मुद्दे पर लिखते हैं...लेकिन इतने सालों तक कविता प्रकाशित कराने का ख्याल उनके मन में नहीं आया...पूछने पर कहते हैं...
...'कविता प्रकाशित कराने का ख्याल कभी आया ही नहीं, बस लिखने का ही ख्याल आता है।'
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