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कोरोना काल: घरों के भीतर व घरों के बाहर के लोग

ललित फुलारा जब मैं यह लिख रहा हूं..  जुलाई बीतने वाली है। फुटपाथ, सड़कें, गली-मोहल्ले कोरोना से निर्भय हैं! जीवन की गतिशीलता निर्बाध चल रही है। लोगों के चेहरों पर  मास्क  ज़रूर हैं, पर भीतर का डर धीरे-धीरे कम होने लगा है। रोज़मर्रा के कामकाज़ पर लौटे व्यक्तियों ने आशावादी रवैये से विषाणु के भय को भीतर से परास्त कर दिया है। घर के अंदर बैठे व्यक्तियों की चिंता ज्यादा है, बाहर निकलने वाले जनों ने सारी चीजें नियति पर छोड़ दी हैं।  वैसे ही जैसे असहाय, अगले पल की चिंता, दु:ख, भय और परेशानी ईश्वर पर छोड़ देता है।  हम भारतीयों की सबसे बड़ी ख़ासियत है कि जब हम चीजों को ईश्वरीय सत्ता पर छोड़ देते हैं, तो निराशा के पलों में भी हमारे भीतर जबरदस्त आशा व उत्साह पैदा हो जाता है, जो अवसाद, तनाव और उलझनों से झट से बाहर धकेल देता है। मजदूरों, फैक्टियों में काम करने वाले कामगारों, रेहड़ी-पटरी लगाकर गुजारा करने वाले फल, सब्ज़ी, खानपान विक्रेताओं व साफ-सफाई कर्मचारियों के साथ ही आजीविका के लिए बाहर निकलने वाले निम्न मध्यवर्गीय व मध्यवर्गीय परिवारों के नौकरी- पेशा लोगों ने अब मन को पक्का कर लिया है।  भाग्यव

साहित्य और सोसायटी: उनकी आंखों में कई किताबें हैं जिनसे अनगिनत कहानियां झांकती हैं!

समान प्रवृत्तियां इंसान को चुंबक-सी खींच लेती है। जुड़ाव-सा हो जाता है। जब पहली बार मैंने मुकेश को देखा, तो एकाएक ठहर-सा गया। उसके टेबल पर मधु कांकरिया का उपन्यास 'सेज पर संस्कृत' था और मुझे देखते ही वो कुर्सी से खड़े होकर 'नमस्ते सर' बोला था। हर गगनचुंबी आधुनिक सोसायटी की तरह मेरी सोसायटी का रिवाज भी है कि यहां हर टावर के नीचे पहरा दे रहे सिक्योरिटी गार्ड्स अपने-अपने फ्लैट से निकलने वाले हर शख्स को सलाम और नमस्ते जरूर ठोकते हैं।  कई बार अटपटा लगता है पर आदत-सी हो गई है। मैं उम्र के हिसाब से पलट कर 'नमस्ते भैया' और 'नमस्ते अंकल' के तौर पर जवाब देता हूं। व्यक्ति की गरिमा और उसके भीतर की खुशी के लिए! अंकल बोलते ही कई उम्रदराज सिक्योरिटी गार्डस के चेहरे की रौनक दोगुनी हो जाती है। पिछले दिनों जब मैं पार्क की तरफ जा रहा था तभी मेरी नजर मुकेश पर पड़ी थी और मैं ठहर गया! मैंने उससे पूछा- 'क्या तुम्हें साहित्य पढ़ने का शौक है।' मेरी बात पर उसने कहा-  'हां सर। जो किताबें मिल जाती हैं, पढ़ लेता हूं। अभी यह किताब पढ़ रहा हूं।' दरअसल, मुकेश को अक्सर