शहर हमें अपनी जड़ों से काट देता है. मोहपाश में जकड़ लेता है. मेरे पांव में चमचमाते शहर की बेड़ियां हैं. आंगन विरान पड़ा है. वो आंगन जिसमें पग-पैजनिया थिरकती थीं. जिसकी धूल-मिट्टी बदन पर लिपटी रहती थी. जहां ओखली थी. बड़े-बड़े पत्थर पुरखों का इतिहास बयां करते थे. किवाड़ की दो पाटें खुली रहती थीं. गेरुए रंग पर सफेद ऐपण, निष्पक्षता, निर्मलता और सादगी की परंपरा को समेटे हुई थी. त्रिभुजाकार छतों पर जिंदगी के संघर्ष, उतार-चढ़ाव और सफलता में धैर्य और विनम्रता की सीख छिपी थी. पर अब सबकुछ विरान है. गांव खाली पड़ा है. आप चाहें तो उत्तराखंड के 1668 भुतहा गांवों में मेरे गांव को भी शामिल कर सकते हैं. पलायन के आंकड़ें रोज़गार पैदा करते तो मैं अपने पांवों की बेड़ियों को काट देता और बबूल के पेड़ पर अमरबेल की तरह लिपटी शहरी असंवेदनशीलता से दूर छिटक जाता. पर कैसे? कौन-सी सरकारी नीति की बदौलत? मेरा राज्य 18 साल का हो गया और मुझे पलायन किए एक दशक. पहले शिक्षा के लिए राज्य के भीतर पलायन और उसके बाद रोज़गार के लिए राज्य से बाहर पलायन. अब स्मृतियों में ही वो भरा-पूरा गांव है, जहां मेरा बचपन बीता
ललित फुलारा पत्रकार और लेखक हैं. माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय से जर्नलिज्म में एम.ए किया। दैनिक भास्कर , ज़ी न्यूज़ , राजस्थान पत्रिका, न्यूज़18 और अमर उजाला जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में काम कर चुके हैं. वर्तमान में ज़ी मीडिया में चीफ-सब एडिटर हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, संस्मरण और कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं। 2022 में कैंपस-यूथ आधारित नॉवेल 'घासी: लाल कैंपस का भगवाधारी' प्रकाशित हुआ। उपन्यास को साहित्य आज तक ने शीर्ष दस किताबों में शामिल किया.