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अप्रैल, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

टिकटॉक युग ने जो भुला दिया था रामायण-महाभारत के प्रसारण ने याद दिला दिया

ललित फुलारा दूरदर्शन लॉकडाउन के दौरान जनता को स्मृतियों में ले जा रहा है। ये स्मृतियां आधुनिक दौर की स्मृतियों से ज्यादा मीठी, मधुर और सौहार्दपूर्ण हैं। इन स्मृतियों में संयुक्त परिवार है। सीमित संसाधन और सुख है। सामूहिकता और एकजुटता है। घरों में फिर से एक बार भक्तिकाल उमड़ आया है। क्या गांव, क्या कस्बा और क्या शहर, हर जगह रामायण और महाभारत फिर से एक बार वो दौर ले आया है, जहां संयुक्त परिवार एक साथ बैठकर टीवी देखा करते थे। दरअसल, सामूहिकता ही भारतीय समाज की सबसे बड़ी शक्ति है जिसे आधुनिक दौर की व्यक्तिवादिता ने थोडा-सा छिटका दिया था। लेकिन एक महामारी ने इंसान को फिर से संयुक्त परिवार और सामाजिकरण की शक्ति याद दिला दी। रामायण और महाभारत का दूरदर्शन पर प्रसारण इस काल की सबसे बड़ी अद्भुत और शानदार घटना है। इससे दूरदर्शन की टीआरपी में तो उछाल आया ही है, घरों में महामारी के भय के बीच उत्सुकता और आनंद का मौहाल है। रामायण और महाभारत के प्रसारण के वक्त आप किसी बड़ी सोसायटी में रहने वाले उच्च वर्ग से लेकर किसी मौहल्ले में रहने वाले मध्यवर्ग का पारिवारिक वातारण देख लीजिए। आपको परिवार

पहली बार- बड़े लेखक का बड़ा वाला साक्षात्कार आपके लिए

'ईमानदार समीक्षा' तो आपने पढ़ी ही होगी। अब वक्त है 'बड़े लेखक' का साक्षात्कार पढ़ने का। लेखक बहुत बड़े हैं। धैर्य से पढ़ना। लेखक बिरादरी की बात है।  तीन-चार पुरस्कार झटक चुके हैं। राजनीतिज्ञों के बीच ठीक-ठाक धाक है। सोशल मीडिया पर चेलो-चपाटों की भरमार। संपादकों से ठसक वाली सेटिंग। महिला लेखिकाओं के बीच लोकप्रियता चरम पर। विश्वविद्यालयों में क्षेत्र और जात वाला तार जुड़ा हुआ है। कई संगठनों का समर्थन अलग से। अकादमी से लेकर समीक्षकों तक फुल पैठ। पूरी फौज है। बौद्धिक टिप्पणी के लिए अलग। गाली-गलौच के लिए छठे हुए। सेल्फी और शेयरिंग के लिए खोजे हुए। फिजिकल अटैक के लिए कभी-कभार वाले। साक्षात्कारकर्ता से टकरा गए थे किसी रोज लॉकडाउन से पहले। मार्च का महीना था। गले में गमछा और हाथ में किताबें लिए सरपंच बने फिर रहे थे। थोड़ी-सी नोंकझोक के बाद ऐसी दोस्ती हुई कि इंटरव्यू ही ले डाला। तो पढ़िए बड़े लेखक का बड़ा इंटरव्यू.............। साक्षात्कारकर्ता- नमस्कार लेखक महोदय। आपका स्वागत है। लेखक महोदय- बहुत-बहुत आभार आपका। साक्षात्कारकर्ता- मेरा आपसे पहला सवाल है कि आप लिखते

ईमानदार समीक्षा- साहित्य का सच्चा पाठक और लेखक

एक जानकार काफी दिनों से अपनी किताब की समीक्षा लिखवाना चाहते थे। अक्सर सोशल मीडिया लेटर बॉक्स पर उनका संदेश आ टपकता। 'मैं उदार और भला आदमी हूं' यह जताने के लिए उनके संदेश पर हाथ जोड़ तीन-चार दिन बाद मेरी जवाबी चिट्ठी भी पहुंच जाती। यह सिलसिला काफी लंबे वक्त का है। इतना धैर्यवान व्यक्ति मैंने अभी तक नहीं देखा था। एक ही संदेश हर दूसरे दिन ईमोजी की संख्या बढ़ाकर मुझे मिलता और हर तीसरे-चौथे दिन विनम्रतापूर्ण नमस्कार वाली इमोजी की संख्या बढ़ाकर मेरा जवाब उन तक पहुंचता। बीच-बीच में कभी-कभार वो मैसेंजर से फोन भी कर लिया करते। जब कट जाता मैं वापस हाथ जोड़ देता। करीब दो-तीन महीने इसी तरह का संवाद चलते रहा और एक दिन उन्होंने नंबर मांगा। मैंने दे दिया। कुछ देर बाद फोन आया। बातचीत शुरू हुई। उनकी शिकायत थी कि मैंने अभी तक उनकी पुस्तक की न ही फोटो शेयर की और न ही उस पर कुछ लिखा। फिर उन्होंने पूछा- मैंने जो कुछ पन्ने भेजे थे उनको पढ़ा। मेरा जवाब था- 'वक्त नहीं मिला।' उनकी बातचीत में अधिकार भाव ज्यादा था इसलिए मेरी विनम्रता की सीमा बढ़ गई। करीब आधे घंटे तक बातचीत हुई। अच्छी तरह

क्या कोरोना 'ग्रेड डिप्रेशन 1929' के हालत पैदा कर देगा? वेस्ट एशिया- US की अर्थव्यवस्था रही है चरमरा

डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिकियों की नौकरी बचाने के लिए इमिग्रेशन (अप्रवासन) पर अस्थायी रोक लगा दी है। दूसरे देशों के लोग अब अमेरिका में नौकरी के लिए नहीं जा पाएंगे। यह फैसला अमेरिकी कामगारों के हितों को ख्याल में रखते हुए लिया गया। अमेरिका नहीं चाहता कि कोरोना महामारी के बीच उसकी अर्थव्यवस्था इस कदर चरमराए कि 'ग्रेट डिप्रेशन 1929' जैसे हालत का सामना करना पड़े। जॉब कट और लेऑफ (स्थाई एवं अस्थाई तौर पर कर्मचारियों को हटाना) से बचने के लिए अमेरिका ने 60 दिनों के लिए ग्रीन कार्ड जारी करने या वैध स्थायी निवास की अनुमति देने की प्रक्रिया पर रोक लगा दी है। इसका विरोध और समर्थन दोनों हो रहा है। ट्रंप का कहना है कि बेरोजगारी बढ़ने के खतरे को भांपते हुए यह फैसला जरूरी था क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया जाता तो बेरोजगारी का स्तर ग्रेड डिप्रेशन के दौरान वाला पहुंच जाता। कोरोना महामारी के साथ ही रोजगार का भी भय... यह सच है कि कोरोना महामारी के भय के बीच ही लोगों को अपने रोजगार का भय भी सताने लगा है। इस दौरान जिससे भी बात करो उसके जुबां पर नौकरी का ही डर चढ़ा रहता है। स्वभाविक भी है। क्यों

महाराष्ट्र के पालघर में दो संतों की नृशंस हत्या और उदारवादी बुद्धिजीवियों का सांप्रदायिक चेहरा

पा लघर की घटना 16 अप्रैल को घटी। करीब हफ्ते भर तक सूबे की सरकार चुप्पी साधे रही। मीडिया संस्थानों के ख़बरनवीसों को कोनो-कान खबर तक नहीं लगी। या फिर वीडियो सामने आने के बाद भी घटना के बड़े बन जाने तक इंतजार होता रहा। सोशल मीडिया पर दबाव बना और घटना का वीडियो तेजी से वायरल होने लगा। सामाजिक माध्यम के ख़बरनवीसों के बीच आक्रोश पनपा और विमर्श होने लगा कि साधुओं की नृशंस हत्या पर सरकार और मीडिया चुप्प क्यों है? महाराष्ट्र सरकार पर सोशल मीडिया एक्टिविस्टों का दबाव बना और अब तक देश के बड़े मीडिया संस्थानों ने भी ख़बर लपल ली। विपक्ष भी आक्रोशित हो गया और सूबे की सरकार पर निशाना साधा जाने लगा। आनन फानन में सूबे के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे का बयान आया- 'न्याय किया जाएगा। अब तक लेफ्ट और राइट एंगल से मीडिया में इस घटना की कवरेज हो चुकी थी। बुद्धिजीवियों के ज़ुबान पर चढ़े रहने वाले कुछ अख़बारों और मीडिया संस्थानों ने 'दो लोगों की हत्या' के शीर्षक से खबर चलाई। जबकि दूसरी तरफ बहुत-से अखबारों और टेलीविजन चैनलों एवं वेबसाइटों पर 'दो साधुओं' की हत्या शीर्षक से खबर चलाई गई। उदारवादी