बुढ़ापे की तन्हाई, एकाकीपन, घुटन, तड़प जवानी कहां समझ पाती है? वो भाग रही है, दौड़ रही है, उसकी अलग दुनिया है, मिजाज अलग है... उसे पाना है, कमाना है, बेहतर जीवन बनाना है. चाहे भावनाएं/ संवेदनाएं/कल्पना, रचनात्मकता व श्रम कुछ भी क्यों ना बिक जाए! हैरान होने की क्या बात है? हम सब ये ही तो कर रहे हैं. तभी हमारे पास सबकुछ होते हुए भी और कुछ ना होते हुए भी अपनों के लिए वक्त नहीं.. और अपने अगर बुढ़ें हो गए हैं तो बिल् कुल भी नहीं...। किसको दोष दें, जवानी या बुढ़ापा, शहर या गांव चलो सारा दोष बाजारवाद के मत्थे मढ़ देते हैं. कह सकते हैं कि हमारी इस जीवनशैली के पीछे उसका हाथ है. उसी की बदौलत हम कोल्हू के बैल बन गए हैं. उसने हमारे वक्त को अपना गुलाम बनाकर रख दिया है. हमने तीन मंजिला मकान खड़ा किया और तीनों में अलग-अलग सिमट कर रह गए हैं. मां-बाप, दादा-दादी की दुनिया अलग, भाई और बहनों की अलग. दुनिया की नजरों में मकान की नींव एक है, पर दिलों की दूरियों को हमसे बेहतर कौन जानता है? अक्सर किसी घटना के बाद हम कहते हैं, बुढ़ावा तनाव में है. बुढ़ापा खतरे में है. बुढ़ापे के लिए जवानी पर वक्त नही
ललित फुलारा पत्रकार और लेखक हैं. माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय से जर्नलिज्म में एम.ए किया। दैनिक भास्कर , ज़ी न्यूज़ , राजस्थान पत्रिका, न्यूज़18 और अमर उजाला जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में काम कर चुके हैं. वर्तमान में ज़ी मीडिया में चीफ-सब एडिटर हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, संस्मरण और कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं। 2022 में कैंपस-यूथ आधारित नॉवेल 'घासी: लाल कैंपस का भगवाधारी' प्रकाशित हुआ। उपन्यास को साहित्य आज तक ने शीर्ष दस किताबों में शामिल किया.