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अधूरा ही तो है सब-2

(साभार- मंजूषा नेगी पांडे जी की पेटिंग)  कई बार खुद से सवाल करता हूं। क्या अधूरा है? सांस तो पूरी चल रही है। दिल भी धड़क रहा है। भूख, प्यार और नींद भी पूरी है। फिर क्यों बार-बार इस अधूरेपन का अहसास जाग उठता है? गुनगुनी धूप, चिलचिलाती गर्मी, बादलों से ढके अलसाए दिनों में बुने ख्वाब तो कहीं अधूरे नहीं रह गए?  जागती आंखों से देखे गए सपने या फिर प्यार में डूबकर, रोमांस की कविता में तैरकर, किस्से-कहानियों में रमकर फिल्मों के संग-संग चलकर और प्रवाह में बहकर बिना सोचे समझे किए गए वायदे! या फिर सोच-समझकर खाई गई कसमें? क्या अधूरा रह गया है? जवाब तलाशता हूं तो सवाल खड़े हो जाते हैं। रास्ता वही है। सड़क और शहर भी वही है, बस कमरा बदल गया है। यादें वो ही हैं बस वक्त निकल गया है। महफिल में किस्सा छिड़ते ही बेफ्रिक होकर तैर आता हूं पुराने दिनों में, और साथियों को मेरी आंखों की नदियां सूखी दिखती हैं। फिर वही सवाल महक उठता है फिजाओं में, क्या अधूरा है? और मैं बताने लगता हूं- ख्वाहिश अधूरी रह गई है। ख्वाब अधूरे रह गए हैं। बाकि....इससे आगे मेरे शब्द ठहर जाते हैं और मैं फिर सोचने लगता हूं इससे

अधूरा ही तो है सब

स्पर्श आभासी ही होता है जब सिरहाने बैठी होती हो। करवटों के सहारे बाहों में भरने की व्यर्थ कोशिश अब आदत बन गई है। तकिया ही है पता है , फिर भी कहीं कुछ ऐसा है जो ‘ समझ ’ पर पर्दा डाल देता है। दृष्यों को  आंखों के आगे उकेर देता है। चेहरे पर खिलखिलाहट ले आता है। अधूरे सपनों में पूरे होने की आशा जगा देता है।  इस तरह रात बित जाती है , सांझ तक जो सांसे जिंदा रखती हैं वो तुम्हारे पास होने भर का एहसास ही तो है। किसे नहीं पता परछाई भर हो तुम। रोज की तरह सपनों में बुलाई गई और अभ्यास के जरिए पास बैठाई गई एक आभासी आकृति , जो छटपटाहट को कम कर देती है और जीने की इच्छा को बढ़ा देती है। इतना आसान नहीं है यह खेल जो चल रहा है।   इसके लिए छवियों को उकेरना पड़ता हूं , दृश्यों के साथ संवाद स्थापित करना पड़ता है। तब जाकर कहीं एक कड़ी बन पाती है अवचेतन में। इसके बाद हम घूमती रील के साथ सुनहरे दिनों के छांव तले बेफ्रिक होकर गमों को टांग आते हैं चीड़ की ऊंचाईयों पर। जिनके बारे में हमने कभी बात भी नहीं की होती है। बस एक चीज़ जो सबसे ज्यादा परेशान करती है वो तुम्हारी चुप्पी है जो टूटने का नाम ही न

प्रेम ने बदली मेघा श्रीराम की जिंदगी

मेघा श्रीराम कहती हैं कि मेरी संगीत में कतई रुचि नहीं थी। बचपन में मार खा-खा कर संगीत की शिक्षा ली। शनिवार का दिन आते ही मैं खौफ भर जाती थी , क्योंकि इस दिन मास्टरजी संगीत सिखाने के लिए आते थे। उस पर से हुआ ये कि 12 वीं कक्षा में मैं फेल हो गई। मैं पूरी तरह निरुत्साहित हो गई थी , तब दीदी को पढ़ाने एक लड़का आता था , उससे मुझे प्रेम हो गया और मेरी जिंदगी बदल गई। मोहब्बत के लिए बीएचचू में लिया दाखिला मैंने उस लड़के को पाने के लिए संगीत का सहारा लिया। संगीत सीखने के लिए बीएचयू , वाराणसी में दाखिला ले लिया। यहां भी मेरे मन में संगीत से ज्यादा प्रेम में था , क्योंकि मैं तो प्रेम के लिए ही यहां आई थी। इसके बाद धीरे-धीरे लोगों को सुना और संगीत में रुचि पैदा हुई और जेब खर्च के लिए स्टेज पर गाना शुरू किया। शिवाय में गाना अद्भुत अनुभव रहा जब मुंबई पहुंची तो शुरुआती दौर में नादिरा बब्बर से लेकर मकरंद देशपांडे तक के साथ थिएटर किया। 2011 में कोक स्टूडियो में गाने का मौका मिला। यह मेरी जिंदगी और करियर का अहम पड़ाव था। इसके बाद फिल्मों में भी गाने का मौका मिला। अजय देवगन की फि