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शरीर का होना और मन का होना एक होना नहीं हो सकता

कल रात जब धरती की बिजली गुल हुई तो मन चांद पर जा लटका। झांकने लगा देवताओं की नगरी में। महावीर से कभी किसी ने पूछा था चांद के पार क्या है? देवताओं का वास। जवाब था उनका। पूछने वाले का मन तब चांद पर लटका होता तो रात के तीसरे पहर इस मनमाने मन को चांद की यात्रा क्यों करनी पड़ती? खैर, मन है। और मन की है। जो मन की है वो शरीर की कहां और जो शरीर की है वो मन की कहां? शरीर एक किलोमीटर में थककर चूर हो जाता है और मन ने 384,400 किलोमीटर की यात्रा कर डाली। मन की हो जाए तो  शरीर चलता है और मन की न हो तो शरीर झेलता है। बड़ा ही दुष्ट है ये मन! अजी! देव भी है। एक गोलाकर चट्टान पर बैठा रहा मन। धरती की तरह वहां कोई चुंबकीय क्षेत्र नहीं था जो अपनी तरफ खींच ले।  इसी वजह से ठहरा रहा मन। नहीं तो लाखों-करोड़ साल हो गए ठहरता कहां है ये मन? इसकी नियति ही भटकने में है। बड़ी देर तक खोजते रहा देवताओं को। चट्टाने ही चट्टाने नजर आई। उन चट्टानों को पार न कर सका ये मन। और वापस आ गया इस ख्याल से कि देवताओं की नगरी की सुरक्षा बेहद मजबूत है- उसके पार नहीं झांका जा सकता।  लौटते वक्त मन को अचानक ख्याल आया- क्