स्पर्श आभासी ही होता है जब सिरहाने बैठी होती हो। करवटों के सहारे बाहों में भरने की व्यर्थ कोशिश अब आदत बन गई है। तकिया ही है पता है , फिर भी कहीं कुछ ऐसा है जो ‘ समझ ’ पर पर्दा डाल देता है। दृष्यों को आंखों के आगे उकेर देता है। चेहरे पर खिलखिलाहट ले आता है। अधूरे सपनों में पूरे होने की आशा जगा देता है। इस तरह रात बित जाती है , सांझ तक जो सांसे जिंदा रखती हैं वो तुम्हारे पास होने भर का एहसास ही तो है। किसे नहीं पता परछाई भर हो तुम। रोज की तरह सपनों में बुलाई गई और अभ्यास के जरिए पास बैठाई गई एक आभासी आकृति , जो छटपटाहट को कम कर देती है और जीने की इच्छा को बढ़ा देती है। इतना आसान नहीं है यह खेल जो चल रहा है। इसके लिए छवियों को उकेरना पड़ता हूं , दृश्यों के साथ संवाद स्थापित करना पड़ता है। तब जाकर कहीं एक कड़ी बन पाती है अवचेतन में। इसके बाद हम घूमती रील के साथ सुनहरे दिनों के छांव तले बेफ्रिक होकर गमों को टांग आते हैं चीड़ की ऊंचाईयों पर। जिनके बारे में हमने कभी बात भी नहीं की होती है। बस एक चीज़ जो सबसे ज्यादा परेशान करती है वो तुम्हारी चुप्पी है जो टूटने का नाम ही न
ललित फुलारा पत्रकार और लेखक हैं. माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय से जर्नलिज्म में एम.ए किया। दैनिक भास्कर , ज़ी न्यूज़ , राजस्थान पत्रिका, न्यूज़18 और अमर उजाला जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में काम कर चुके हैं. वर्तमान में ज़ी मीडिया में चीफ-सब एडिटर हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, संस्मरण और कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं। 2022 में कैंपस-यूथ आधारित नॉवेल 'घासी: लाल कैंपस का भगवाधारी' प्रकाशित हुआ। उपन्यास को साहित्य आज तक ने शीर्ष दस किताबों में शामिल किया.