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नवंबर 17, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अधूरा ही तो है सब

स्पर्श आभासी ही होता है जब सिरहाने बैठी होती हो। करवटों के सहारे बाहों में भरने की व्यर्थ कोशिश अब आदत बन गई है। तकिया ही है पता है , फिर भी कहीं कुछ ऐसा है जो ‘ समझ ’ पर पर्दा डाल देता है। दृष्यों को  आंखों के आगे उकेर देता है। चेहरे पर खिलखिलाहट ले आता है। अधूरे सपनों में पूरे होने की आशा जगा देता है।  इस तरह रात बित जाती है , सांझ तक जो सांसे जिंदा रखती हैं वो तुम्हारे पास होने भर का एहसास ही तो है। किसे नहीं पता परछाई भर हो तुम। रोज की तरह सपनों में बुलाई गई और अभ्यास के जरिए पास बैठाई गई एक आभासी आकृति , जो छटपटाहट को कम कर देती है और जीने की इच्छा को बढ़ा देती है। इतना आसान नहीं है यह खेल जो चल रहा है।   इसके लिए छवियों को उकेरना पड़ता हूं , दृश्यों के साथ संवाद स्थापित करना पड़ता है। तब जाकर कहीं एक कड़ी बन पाती है अवचेतन में। इसके बाद हम घूमती रील के साथ सुनहरे दिनों के छांव तले बेफ्रिक होकर गमों को टांग आते हैं चीड़ की ऊंचाईयों पर। जिनके बारे में हमने कभी बात भी नहीं की होती है। बस एक चीज़ जो सबसे ज्यादा परेशान करती है वो तुम्हारी चुप्पी है जो टूटने का नाम ही न