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जून, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

वामपंथी दादा का निराला चेला

यह संवाद वामपंथी दादा और उनके नवेले शिष्य के बीच उस वक्त हो रहा है जब दादा मार्क्स को दो सौ साल और एक महीने होने को हैं। प्रेत को न मानने वाले दादा की प्रेत पूजा जारी है। एक ऐसा भी विचारों का वर्ग है जो दादा मार्क्स और उनके चेलों की मूर्तियों को गंगा में विसर्जन करने पर तुला है। इस वर्ग के विचारों से आने वाले कुछ नेता टाइप नौजवानों का मानना है- भटकती हुई आत्माएं बेहद खतरनाक होती हैं। गंगा नहला दिया जाए तो इनका प्रकोप शांत हो जाता है। दूसरी तरफ, स्वर्ग और नरक के बंधन से मुक्त, सृष्टि में मनुष्य से श्रेष्ठ किसी को न मानने वाले बंधु , अपनी बड़ी दाढ़ी, टीशर्ट और कालजयी टोपी में दादा मार्क्स, चाचा लेनिन और उनके विचार- वंशज च्वे ग्वेरा और गुरुभाई माओत्से तुंग को ध्यान-जात किए हुए हैं। उस वक्त विचारों की द्वंदात्मकता में उलझा एक शिष्य अपने वामपंथी दादा से ज्ञान प्राप्त कर फिल्म सिटी के पत्रकारों की तरह तृप्त होना चाह रहा है....आगे का संवाद निजी और नितांत तो नहीं है, लेकिन दोनों की धूनी रमी हुई है। पर्दा उठ रहा है गुरु और शिष्य की उम्र और दिखावट, बनावट का अंदाजा पाठक अपने आस-पास की स्थ

मेरे पांव में चमचमाते शहर की बेड़ियां, आंगन वीरान और गांव खाली हैं...

शहर हमें अपनी जड़ों से काट देता है. मोहपाश में जकड़ लेता है. मेरे पांव में चमचमाते शहर की बेड़ियां हैं. आंगन विरान पड़ा है. वो आंगन जिसमें पग-पैजनिया थिरकती थीं. जिसकी धूल-मिट्टी बदन पर लिपटी रहती थी. जहां ओखली थी. बड़े-बड़े पत्थर पुरखों का इतिहास बयां करते थे. किवाड़ की दो पाटें खुली रहती थीं. गेरुए रंग पर सफेद ऐपण, निष्पक्षता, निर्मलता और सादगी की परंपरा को समेटे हुई थी. त्रिभुजाकार छतों पर जिंदगी के संघर्ष, उतार-चढ़ाव और सफलता में धैर्य और विनम्रता की सीख छिपी थी. पर अब सबकुछ विरान है. गांव खाली पड़ा है. आप चाहें तो उत्तराखंड के 1668 भुतहा गांवों में मेरे गांव को भी शामिल कर सकते हैं. पलायन के आंकड़ें रोज़गार पैदा करते तो मैं अपने पांवों की बेड़ियों को काट देता और बबूल के पेड़ पर अमरबेल की तरह लिपटी शहरी असंवेदनशीलता से दूर छिटक जाता. पर कैसे? कौन-सी सरकारी  नीति की बदौलत?  मेरा राज्य 18 साल का हो गया और मुझे पलायन किए एक दशक. पहले शिक्षा के लिए राज्य के भीतर पलायन और उसके बाद रोज़गार के लिए राज्य से बाहर पलायन. अब स्मृतियों में ही वो भरा-पूरा गांव है, जहां मेरा बचपन बीता