'जिंदगी कैसी चल रही है?' 'बस कट रही है'। ये दो ऐसी लाइने हैं जो अक्सर हमारी जुबान पर होती हैं। हम जीवन को जीते नहीं 'काटते' हैं, जैसे वो खेत की घास हो। 'काटने' से ही लगता है कि हम जीवन के प्रति कितने निराश और हताश हो चुके हैं, ऊब चुके हैं। क्या कभी इस सवाल का जवाब हम इस तरहे देंगे। 'बहुत बढ़िया चल रही है। आनंद आ रहा है। मौज हो रही है।' जिस दिन ऐसा बोलने लगेंगे 'जीवन सरल' होता चला जाएगा। ये जो काटना शब्द है अक्सर हमारा वास्ता इससे जवानी में पड़ता है। बचपन में हम जीवन को काटते नहीं बल्कि जीते हैं, मौजू की तरह। जैसे-जैसे बढ़े होते जाते हैं हमारे पास अपने लिए वक्त कम पड़ता जाता है और हम जीवन को काटने लगते हैं। इसलिए, जब जॉन जैडी कहते हैं- 'जीवन आसान है, हम इसे इतना कठिन क्यों बनाते हैं' तो यह बात हमें अंदर तक छू जाती है और इसपर सोचने को विवश हो जाते हैं। ...जैडी की तरह आप में से बहुतों को भी लगता होगा- 'जब मैं बच्चा था, सबकुछ आसान और मजेदार था।' क्यों था जब तक इसका जवाब खुद नहीं खोजेंगे सबकुछ था में ही चलता रहेगा। बहरह
ललित फुलारा पत्रकार और लेखक हैं. माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय से जर्नलिज्म में एम.ए किया। दैनिक भास्कर , ज़ी न्यूज़ , राजस्थान पत्रिका, न्यूज़18 और अमर उजाला जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में काम कर चुके हैं. वर्तमान में ज़ी मीडिया में चीफ-सब एडिटर हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, संस्मरण और कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं। 2022 में कैंपस-यूथ आधारित नॉवेल 'घासी: लाल कैंपस का भगवाधारी' प्रकाशित हुआ। उपन्यास को साहित्य आज तक ने शीर्ष दस किताबों में शामिल किया.