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..जो समझता है प्रेम करता है, जो कुछ नहीं समझता व्यर्थ है

अगर प्रेम, गुलाब की पंखुड़ियों में होता तो चंद घंटे बाद गुलाब मुरझा क्यों जाता? प्रेम तो गुलाब की टहनियों में है जो हवा के संग लहलहाती हैं। प्रेम की जड़ वो मिट्टी है जो पानी से सींची जाती है और चंद रोज बाद असंख्य गुलाब मुस्करा रहे होते हैं। प्रेम मनुष्य के भीतर है। वो न शब्द में है, न भाव में है। वो चेतना में है। अहसास में है। शब्द मात्र उसकी अभिव्यक्ति है। प्रेम व्यक्ति के भीतर एक सक्रिय शक्ति है। यह शक्ति, व्यक्ति और दुनिया के बीच की दीवारों को तोड़ डालती है और उसे दूसरों से जोड़ देती है। लेकिन, कहीं ऐसा तो नहीं अब यह सक्रिय शक्ति क्षीण होती जा रही है और प्रेम दिखावटी! हम एक जल्दबाजी। शोरगुल। भीड़-भाड़ और रफ्तार और हड़बड़ी में तो नहीं जी रहे। अगर जी रहे हैं तो कितना अजीब है यह जल्दबाजी है। शोरगुल। भीड़-भाड़... और रफ्तार। हमारे पास सबकुछ है सिर्फ वक्त नहीं है। न मिलने, न बातचीत के लिए। ऐसे में हमारे अंदर का प्रेम फीका पड़ रहा है...शून्य की तरफ बढ़ रहा है। किसी के दुख में हमारे आंखों में आंसू नहीं होते, सुख में चेहरे की मुस्कारहट...हमारी भावनाएं किस तरफ बढ़ रही हैं। टहनी विहीन गुल

मां नंदा को कुमाऊं लाया था यह राजा, जीता था कैलाश मानसरोवर

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सम्मुख सभागार में हाल ही में 'बाज बहादुर चंद' नाटक देखने का मौका मिला. बाज बहादुर चंद सिर्फ एक नाटक का पात्र ही नहीं, बल्कि उत्तराखंड के इतिहास का अभिन्न हिस्सा है. यही वजह है कि आम दर्शकों के अलावा, उत्तराखंड के इतिहास और संस्कृति की समझ रखने वालों के लिए भी यह नाटक अहम था, क्योंकि अक्सर शोध की कमी और तथ्यों के इधर-उधर होने के चलते ऐतिहासिक नाटकों से समीक्षकों की असहमतियां बढ़ जाती हैं, और प्रश्न चिन्ह खड़े हो जाते हैं. एक नाटक, सिर्फ मंच पर निभाया गया किरदार ही नहीं बल्कि पीढ़ियों को शिक्षित करने का जरिया होता है. वो जितने शहरों में होता है, जितनी जगहों पर होता है, लोगों की समझ को विकसित करता है. ऐसे में तथ्यों के साथ अगर छेड़छाड़ होती है तो पूरी कहानी ही बदल जाती है.... कहानी बदलने का मतलब, इतिहास का बदलना. इस दृष्टि से देखें तो यह नाटक, सफल रहा. लेखक और निर्देशक ने इतिहास के साथ ही, कुमाऊं और गढ़वाल दोनों मंडलों की जनभावनाओं का ख्याल रखते हुए नाटक को बखूबी प्रस्तुत किया और लोक नृत्य और लोक संगीत के एक्सपेरिमेंट जरिए, दर्शकों को जड़ों से जोड़ा

वामपंथी दादा का निराला चेला

यह संवाद वामपंथी दादा और उनके नवेले शिष्य के बीच उस वक्त हो रहा है जब दादा मार्क्स को दो सौ साल और एक महीने होने को हैं। प्रेत को न मानने वाले दादा की प्रेत पूजा जारी है। एक ऐसा भी विचारों का वर्ग है जो दादा मार्क्स और उनके चेलों की मूर्तियों को गंगा में विसर्जन करने पर तुला है। इस वर्ग के विचारों से आने वाले कुछ नेता टाइप नौजवानों का मानना है- भटकती हुई आत्माएं बेहद खतरनाक होती हैं। गंगा नहला दिया जाए तो इनका प्रकोप शांत हो जाता है। दूसरी तरफ, स्वर्ग और नरक के बंधन से मुक्त, सृष्टि में मनुष्य से श्रेष्ठ किसी को न मानने वाले बंधु , अपनी बड़ी दाढ़ी, टीशर्ट और कालजयी टोपी में दादा मार्क्स, चाचा लेनिन और उनके विचार- वंशज च्वे ग्वेरा और गुरुभाई माओत्से तुंग को ध्यान-जात किए हुए हैं। उस वक्त विचारों की द्वंदात्मकता में उलझा एक शिष्य अपने वामपंथी दादा से ज्ञान प्राप्त कर फिल्म सिटी के पत्रकारों की तरह तृप्त होना चाह रहा है....आगे का संवाद निजी और नितांत तो नहीं है, लेकिन दोनों की धूनी रमी हुई है। पर्दा उठ रहा है गुरु और शिष्य की उम्र और दिखावट, बनावट का अंदाजा पाठक अपने आस-पास की स्थ

मेरे पांव में चमचमाते शहर की बेड़ियां, आंगन वीरान और गांव खाली हैं...

शहर हमें अपनी जड़ों से काट देता है. मोहपाश में जकड़ लेता है. मेरे पांव में चमचमाते शहर की बेड़ियां हैं. आंगन विरान पड़ा है. वो आंगन जिसमें पग-पैजनिया थिरकती थीं. जिसकी धूल-मिट्टी बदन पर लिपटी रहती थी. जहां ओखली थी. बड़े-बड़े पत्थर पुरखों का इतिहास बयां करते थे. किवाड़ की दो पाटें खुली रहती थीं. गेरुए रंग पर सफेद ऐपण, निष्पक्षता, निर्मलता और सादगी की परंपरा को समेटे हुई थी. त्रिभुजाकार छतों पर जिंदगी के संघर्ष, उतार-चढ़ाव और सफलता में धैर्य और विनम्रता की सीख छिपी थी. पर अब सबकुछ विरान है. गांव खाली पड़ा है. आप चाहें तो उत्तराखंड के 1668 भुतहा गांवों में मेरे गांव को भी शामिल कर सकते हैं. पलायन के आंकड़ें रोज़गार पैदा करते तो मैं अपने पांवों की बेड़ियों को काट देता और बबूल के पेड़ पर अमरबेल की तरह लिपटी शहरी असंवेदनशीलता से दूर छिटक जाता. पर कैसे? कौन-सी सरकारी  नीति की बदौलत?  मेरा राज्य 18 साल का हो गया और मुझे पलायन किए एक दशक. पहले शिक्षा के लिए राज्य के भीतर पलायन और उसके बाद रोज़गार के लिए राज्य से बाहर पलायन. अब स्मृतियों में ही वो भरा-पूरा गांव है, जहां मेरा बचपन बीता