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मां नंदा को कुमाऊं लाया था यह राजा, जीता था कैलाश मानसरोवर

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सम्मुख सभागार में हाल ही में 'बाज बहादुर चंद' नाटक देखने का मौका मिला. बाज बहादुर चंद सिर्फ एक नाटक का पात्र ही नहीं, बल्कि उत्तराखंड के इतिहास का अभिन्न हिस्सा है. यही वजह है कि आम दर्शकों के अलावा, उत्तराखंड के इतिहास और संस्कृति की समझ रखने वालों के लिए भी यह नाटक अहम था, क्योंकि अक्सर शोध की कमी और तथ्यों के इधर-उधर होने के चलते ऐतिहासिक नाटकों से समीक्षकों की असहमतियां बढ़ जाती हैं, और प्रश्न चिन्ह खड़े हो जाते हैं.
एक नाटक, सिर्फ मंच पर निभाया गया किरदार ही नहीं बल्कि पीढ़ियों को शिक्षित करने का जरिया होता है. वो जितने शहरों में होता है, जितनी जगहों पर होता है, लोगों की समझ को विकसित करता है. ऐसे में तथ्यों के साथ अगर छेड़छाड़ होती है तो पूरी कहानी ही बदल जाती है.... कहानी बदलने का मतलब, इतिहास का बदलना. इस दृष्टि से देखें तो यह नाटक, सफल रहा. लेखक और निर्देशक ने इतिहास के साथ ही, कुमाऊं और गढ़वाल दोनों मंडलों की जनभावनाओं का ख्याल रखते हुए नाटक को बखूबी प्रस्तुत किया और लोक नृत्य और लोक संगीत के एक्सपेरिमेंट जरिए, दर्शकों को जड़ों से जोड़ा.
फोटो साभार- मयंक आर्य
चंद वंश के प्रतिष्ठित राजा थे बाज बहादुर, पर थे गोद लिए
इतिहास के पन्ने बाज बहादुर चंद को चंद वंश का प्रतिष्ठित राजा बताते हैं. बाज बहादुर चंद ने 1638 ई. से लेकर 1678 ई. तक कुमाऊं पर शासन किया. कहा जाता है कि बाज बहादुर चंद के शाहजहां और औरंगजेब दोनों से ही अच्छे ताल्लुकात थे. उन्हें शाही सेना का मजबूत समर्थन हासिल था. करीब 7वीं शताब्दी में राजा सोम चंद ने चंद वंश की नींव रखी. सोम चंद ने चंपावत को अपनी राजधानी बनाया. 1563 ई. में राजा कल्याण चंद चंपावत से अल्मोड़ा राजधानी ले आए. चंद वंश के शासनकाल को कुमाऊं में सांस्कृतिक पुनरुत्थान का काल भी माना जाता है. इस दौरान कई मंदिरों का निर्माण हुआ.
बाज बहादुर चंद, चंद वंश में जन्में नहीं बल्कि गोद लिए गए थे. उनका जन्म गोसाई परिवार में हुआ था. मां की प्रतिज्ञा की वजह से उन्हें चंद वंश की गद्दी सौंपी गई. नाटक में बाज बहादुर की भूमिका निभा रहे कैलाश जब मंच से कहते हैं- ''मैं बाज चंद, पुत्र त्रिमल चंद, ऊपर विजय चंद, के ऊपर लक्ष्मी चंद, के ऊपर रुद्र चंद और सबसे ऊपर सोम चंद. इसी तरह आए ठहरे ये सब देव भूमि पर. इसी तरह एक स्वप्न ही खींच लाया, हर एक को. लेकिन सच तो यह है कि मैं हूं गोद लिया. मेरे असल पिता नील गौंसाई, जब अंधे किए गए इन चंद वंशियों की सत्ता ग्रही युद्ध में. तब मुझे आश्रय दिया एक ब्राह्मणी ने.'' हालांकि, मुगल दस्तावेजों में बाज बहादुर को कुमाऊं का राजा नहीं बल्कि जमीदार बताया गया है. 
मां नंदा को गढ़वाल से कुमाऊं लाए थे बाज बहादुर
1655 ईस्वी में बाज बहादुर चंद ने गढ़वाल पर आक्रमण किया और रियासत जीत ली. उस वक्त गढ़वाल की रानी कर्णावती थी. इतिहास बताता है कि बाज बहादुर चंद ने गढ़वाल पर आक्रमण के लिए शाहजहां से सहायता ली थी. शाहजहां भी गढ़वाल रियासत को अपना हिस्सा बनाता चाहता था. मुगल सेना कई प्रयासों के बाद भी गढ़वाल के हिस्से को जीत नहीं पाई थी. बाज बहादुर चंद ने  जब गढ़वाल को जीतने की ठानी तो उन्हें सलाह दी गई जब तक वो मां नंदा को अपने किले में स्थापित नहीं करते तब तक गढ़वाल की रानी को हराना नामुमकिन है. नाटक में इस बात को कलात्मक रूप दिखाया गया है कि किस तरह मां नंदा (शिव  की पत्नी) बाज बहादुर के सपने में आती है और उससे कहती है तू मुझे कब अपने चौखट पर बुलाएगा.... इसके बाद बाज बहादुर शाहजहां के दरबार में जाता है और उसे अपने सपने के बारे में बताता है. शाहजहां, बाज बहादुर के साथ शाही सेना भेज देता है.
मानसरोवर का इलाका जीता था
बाज बहादुर ने ही मानसरोवर इलाके को कुमाऊं साम्राज्य में मिलाया था. उन्होंने हुणियों (भोटिया व तिब्बती) के आंतक को खत्म करने के लिए तिब्बत पर आक्रमण किया. इतिहास कहता है कि हुणिया उस वक्त मानसरोवर की यात्रा पर जाने वाले तीर्थयात्रियों से लूट-पाट करते थे. तीर्थ यात्री हुणियो के आतंक से परेशान थे. इसी को देखते हुए बाज बहादुर ने तिब्बत की तरफ अपनी सेना भेजी और हुणियो के सबसे मजबूत किले टकलाखर किले को जीत लिया. यह 1670 ई की बात है. बाज बहादुर की सेना के हमले से टकलाखर किले की दीवारें चूर-चूर हो गईं. इतिहासकार कहते हैं कि टकलाखर किले पर बाज बहादुर की सेना के बंदूकें के हमले के निशान यानी दरारें 19वीं शताब्दी तक दिखाई देती थीं.
घोड़ाखाल में गोलू मंदिर बनवाया
बाज बहादुर चंद ने घोड़ाखाल में गोलू का मंदिर बनाया. कहा जाता है कि बाज बहादुर एक अच्छे कूटनीतिज्ञ भी थे. उन्होंने मुगल साम्राज्य में होने वाली लूट-पाट से बचने के लिए अपनी रियासत में मुस्लिम कर्मचारियों को भी नियुक्त किया था. बाज बहादुर ने बालेश्वर मंदिर (1664) के लिए ज़मीन दी. इसके अलावा उत्तराखंड में स्थित बुढ़ा केदार (1666), जागेश्वर मंदिर (1670), बागेश्वर मंदिर (1671) के लिए भी बाज बहादुर ने ही जमीन दी थी. जागेश्वर मंदिर की छत पर लगे तांबे के चद्दर भी बाज बहादुर की ही देन है.
फोटो साभार- मयंक आर्य
उन्होंने उत्तराखंड में कई नौले (पानी की हौज) भी बनाई. कौसानी में पिनाथ मंदिर का निर्माण भी बाज बहादुर ने ही करवाया. उन्होंने भीमताल में भी कई मदिंर बनवाए.

निर्दोषों की हत्याओं का दाग भी लगा
बुढ़ापे में बाज बहादुर को सत्ता छीने जाने का डर सताने लगा था. उनका अपने ही पुराने भरोसेमंद दरबारियों पर से भरोसा उठ गया था. कहा जाता है कि उन्हें अपने  बेटे तक पर भरोसा नहीं था. उन्हें लगता था कि रियासत के कर्मचारी और युवराज उनके खिलाफ षडयंत्र कर रहे हैं. वो इसी भय में जीने लगे और कई पुराने कर्मचारियों को राजदरबार से निकाल दिया.
इतिहास बताता है कि बाज बहादुर चंद के राजसभा में चौगारखा का एक डालाकोटी ब्राहमण था. उसने उनके दिमाग में भर दिया था कि उनके क्षेत्र के धूर्त व अविश्वासी हैं. यहां तक कहा जाता है कि इसी वजह से बाज बहादुर ने हजारों निर्दोष लोगों की हत्या करवा दी थी. बहुतों को अंधा बना दिया था. जब उन्हें डालाकोटी ब्राहण की कपटी सलाह के बारे में पता चला और उनकी आंख खुली तब जाकर उन्हें उसे साज दी. 1678 ई. में बाज बहादुर की मौत हो गई.
कड़ी मेहनत और शोध का नतीजा है यह नाटक
इस म्यूजिकल नाटक का निर्देशन अमित सक्सेना ने किया और इसमें बाज बहादुर का किरदार कैलाश आर्य ने निभाया. यह नाटक कड़ी मेहनत और शोध का नतीजा है. मंच पर कर्णावती का किरदार दिव्या उप्रेती, शाहजहां और मां नंदा का किरदार दीक्षा उप्रेती ने निभाया. मंच पर  बाज बहादुर के द्वंद ही कहानी को आगे बढ़ाते हैं. इन द्वंदों को दमदार अभिनय, भाव-भंगिमा और सशक्त संवाद, जागर गायन के जरिए कैलाश ने बूखूबी निभाया. पहाड़ी वाद यंत्र ढोल, दमुआ, तीतुरी और हुड़का  ने नाटक में जान फूंकी और नृत्य ने दर्शकों को परिवेश से जोड़े रखा.
नाटक में बाज बहादुर चंद की विरता की उपमा बाज पक्षी से की गई. जिस तरह बाज पक्षी पहले शिकार पर नजर गड़ाता है और फिर झट्ट से शिकार को लपकर दूर आसमां में उड़ जाता है. 
ललित फुलारा

ज़ी न्यूज डिजिटल में प्रकाशित
लिंक- 
http://zeenews.india.com/hindi/special/lalit-fulara-blog-on-play-baz-bahadur-chand/428322

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