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मई 25, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अपनों के बिना 'वीरान पहाड़'

पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में जीविकोपार्जन की जटिलता, संघर्ष और रोजगार के समुचित अवसर न होने ने पलायन को बढ़ावा दिया है। यहां जीवन सूर्योदय और सूर्यास्त नहीं, बल्कि रात को वो घना तिमिर है, जब प्रकृति की हरियाली भी सघन अंधेरे से ढक जाती है। ग्रामीण आबादी रोज़गार की तलाश और सुविधासंपन्न जीवन के लिए शहरों में जा रही है। खेत-खलिहान बंजर होते जा रहे हैं। गांवों के गांव खाली हो गए हैं। विकास के सही रोडमैप के अभाव, नीति-नियंताओं और हुक्मरानों की निष्क्रियता, दूरदृष्टि और सही विजन की कमी ने जिस परिकल्पना से इस पहाड़ी राज्य का गठन हुआ था, उस पर बट्टा लगा दिया है। राज्य में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और लूट-खसोट का 'खुला खेल फर्रुखाबादी' नेताओं की नाक के नीचे फल-फूल रहा है। ग्रामीण क्षेत्र में परियोजनाओं के नाम पर सारा धन ग्राम प्रधान, वन पंचायत और पटवारी निगल रहे हैं। मिड-डे मील के नाम पर स्कूलों के लिए भेजा जाने वाला राशन अध्यापक और रसोइए के घरों में जा रहा है। एक करोड़ से ज़्यादा आबादी वाले उत्तराखंड में विकास की वाह्य कल्पना तो सफल है, लेकिन भीतर से खोखली है। पर्यटन स्थल और अति व