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बूंद उनकी याद दिलाती

बरसात का वो पल    भींगी जुल्फें   सरसराती हवा उन पर    मेघों की गर्जन    सहमे नयन कोयल-सा छटपटाता तन    बालों से ढक जाता दूधिया गालों का रंग निखर जाता अंग-अंग यौवन बन जाता आंखों का सप्तरंग।।                 नीला आसमां        काले-काले बादल        पत्तों पर गिरी बूंदें दिखती हैं कितनी सुंदर धूप की चादर फैल जाती पेड़-पौधों पर छट जाती पहाड़ों की धुंध   इधर-उधर।। नीड़ में चिड़ियां   चहकने लगती चूं-चूं कर चुंगती दाने उड़-उड़कर गोरिया सड़क पर घास की डलिया सिर पर रखकर गिली मिट्टी पर पदचिन्ह छोड़कर चल देती हैं वो सड़क से ऊपर आंख टिकी रहती दूर धार में पहुंचने तक       उनपर मेह फिर रिमझिमाती पदचिन्हों को भर जाती बूंद उनकी याद दिलाती।।    ललित फुलारा   दिसंबर 2011 में लिखी और फटे चिथड़ों से निकालकर आज टाइप की गई एक कविता  

तुम हो, तो मैं हूं

तुम हो, तो मैं हूं तुम्हारा प्यार मेरे सपनों का साकार होना है तुम्हारी हंसी-खुशी मेरे सारे गमों को भूल जाना है तुम्हें देखना, तुमसे बातें करना साथ बैठना मेरा, मेरा होना है।। तुम्हें पता है? मेरे लिए क्या हो तुम? सांस हो चेतना हो बंजर भूमि की खेती हो मरुस्थल का जल हो ईद का चांद और दिवाली का दीपक हो तुम बस इतना सुनो तुम हो, तो मैं हूं।।       ललित फुलारा