बरसात का वो पल भींगी जुल्फें सरसराती हवा उन पर मेघों की गर्जन सहमे नयन कोयल-सा छटपटाता तन बालों से ढक जाता दूधिया गालों का रंग निखर जाता अंग-अंग यौवन बन जाता आंखों का सप्तरंग।। नीला आसमां काले-काले बादल पत्तों पर गिरी बूंदें दिखती हैं कितनी सुंदर धूप की चादर फैल जाती पेड़-पौधों पर छट जाती पहाड़ों की धुंध इधर-उधर।। नीड़ में चिड़ियां चहकने लगती चूं-चूं कर चुंगती दाने उड़-उड़कर गोरिया सड़क पर घास की डलिया सिर पर रखकर गिली मिट्टी पर पदचिन्ह छोड़कर चल देती हैं वो सड़क से ऊपर आंख टिकी रहती दूर धार में पहुंचने तक उनपर मेह फिर रिमझिमाती पदचिन्हों को भर जाती बूंद उनकी याद दिलाती।। ललित फुलारा दिसंबर 2011 में लिखी और फटे चिथड़ों से निकालकर आज टाइप की गई एक कविता
ललित फुलारा पत्रकार और लेखक हैं. माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय से जर्नलिज्म में एम.ए किया। दैनिक भास्कर , ज़ी न्यूज़ , राजस्थान पत्रिका, न्यूज़18 और अमर उजाला जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में काम कर चुके हैं. वर्तमान में ज़ी मीडिया में चीफ-सब एडिटर हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, संस्मरण और कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं। 2022 में कैंपस-यूथ आधारित नॉवेल 'घासी: लाल कैंपस का भगवाधारी' प्रकाशित हुआ। उपन्यास को साहित्य आज तक ने शीर्ष दस किताबों में शामिल किया.