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डरावनी फिल्म की तरह था वो मंजर

पेशावर के आर्मी स्कूल में कत्लेआम मचाने वाले आतंकी की पहचान हो गई है। डॉन न्यूज की रिपोर्ट के मुताबिक, पेशावर हमले का मास्टरमाइंड अफगानिस्तान के नजियन जिले में बैठा उमर नायर है। इस आतंकी को उमर खलिफा के नाम से भी जाना जाता है। डॉन न्यूज का कहना है कि उमर ने ही पेशावर के स्कूल में आर्मी ड्रेस में घुसे आतंकियों को बच्चों के कत्लेआम करने का आदेश दिया था। डॉन न्यूज ने सुरक्षा अधिकारियों के हवाले से कहा है कि उमर नायर ने स्कूल ने अंदर के आतंकी को आदेश दिया था कि वह अपने आप को उड़ाने से पहले सेना के जवानों को भी मार डाले। डॉन न्यूज ने आतंकी अबुजर और उसके संचालक उमर नायर के बीच हुई अंतिम बातचीत को सार्वजनिक किया है। इस सार्वजनिक संवाद के मुताबिक, अबुजर ने अपने आका उमर नायर से कहा था- 'हमने ऑडिटोरियम में सारे बच्चों को मार डाला है। अब क्या करें?' उमर नायर ने आतंकी अबूजर को आदेश दिया था कि सेना के आने का इंतजार करो और अपने आप को उडा़ने से पहले सेना के जवानों को मार डालो। डॉन न्यूज का कहना है कि स्कूल के अंदर घुसे सात में से पांच आतंकियों ने खुद को विस्फोटक से उड़ा लिया था। बताया ज

ना तुम, ना मैं, ना समंदर !

ना तुम ना मैं ना समंदर (अंकिता पंवार की नई कविता) लैम्प पोस्ट की लाइट पड़ती है आंखों पर बीड़ी की एक कश उतरता है गले से बिखरा हुआ कमरा औऱ बिखर जाता है कहीं कुछ भी तो नहीं ना आंसू ना शब्द बस एक कड़कड़ीती देह है जो अकड़ती जा रही है उफ कितनी बड़ी बेवकूफी है न जाने के क्यों भगवान याद आते हैं अचानक और उसी क्रम में एक गाली भी इस शब्द के लिए उतनी ही गालियां इस लिजलिजे प्रेम के लिए दूरी, आंसू, आंसू, आंसू एक दो तीन प्यार है या सर्कस का टिकट मैंने प्रेम किया उसकी तमाम बेवकूफियों के साथ मैंन सोचा क्या एक स्त्री वाकई में कर लेती है कुछ समझौते एक चुप्पी जो टूट कर कह सकती थी बहुत कुछ वह चुप्पी चुप्पी ही बनकर रह जाती है एक निर्मम खयाल आता है पूरी निर्ममता के साथ दुनिया को कर दूं तब्दील एक पुरुष वैश्यालय में एक और झनझनाता है हाथ एक खयाल जो जूझता है खत्म हो जाने और फिर से बन जाने के बीच एक खयाल जो जिंदगी को कह देना चाहता है अलविदा है ही क्या रखा इन खाली हो चुकी हथेलियों में ना चांदनी रात ना खुला आसमान खेत ना जंगल ना पहाड़ ना तुम ना मैं ना समंदर ना जिंदगी बस पीछ

"बस मैं हूं घूमती हुई पृथ्वी पर बिल्कुल अकेली"

" बस मैं हूं घूमती हुई पृथ्वी पर बिल्कुल अकेली" हर रोज उठाती हूं रजाई का खोल ताकती रह जाती हूं तुम्हें एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक कहीं कुछ भी तो नहीं है एक दो तीन चार छवियां गडमडाती हुई एक हो जाती हैं मैं जानती हूं आफिस जाने और आफिस से आने के बीच का एक लंबा समय अजीब होता है एक लंबा पहाडी रास्ता कर रहा होता है इंतजार एक खुला आसमान और चांद पता नहीं खुशी देते हैं या और उदास कर देते हैं पता है पराल का पेड़ों और खेतों पर पडे रहना बुलाता है असूज के महीने पर अब तो हर दिन लगने लगता है कि असूज है कि नहीं जब भी देखती हूं हथेलियां खिजाने लगती है इनकी कोमलता ताकती हूं क्या अब भी पड़े छाले पांवों के तलवों में ठीक असूज के महीने के मंडाई के वक्त का खाना याद आता है चाचियों की के साथ खेंत की मेड़ पर और आज बंद आफिस के एक कौंटीन में तोड़ रहीं हूं रोटी के कौर क्या सच में कुछ भी नहीं लौट सकता झाडियों में घुसकर खाना हिसर किनगोड़ खाना , बमोरों के लिए ताकना डांडों से आई मां के पल्लू को , कुछ ही दूरी पर तो है मिट्टी से भरे हुए खेत

पब कल्चर में तब्दील होते कॉफी हाउस, बौद्धिक वर्ग का घटता अनुराग

  हाउस का नाम जेहन में आते ही एक ऐसी जगह की छवि-सी बनने लगती है। जहां , प्रत्येक कुर्सी पर बैठे लोग साहित्य से लेकर राजनीतिक और आर्थिक चर्चाओं में मग्न हैं। टेबल पर घंटों से खाली पड़ी कॉफी की प्याली आराम फरमा रही है। कल्पना कीजिए , क्या आप आज किसी बरिस्ता में एक प्याली कॉफी के बहाने घंटों बैठकर अपने दोस्तों , परिचितों से बातें कर सकते हैं। नहीं!  कॉफी की प्याली खत्म होते ही बैरा आपको जाने का फरमान सुना देगा। कॉफी हाउसों में बैठकों का चलन इधर कुछ कम हुआ है। इसे बदलती जीवनशैली में वक्त की कमी कहिए या फिर कॉफी हाउस मालिकों की व्यापार बुद्धि ! आप इसे बोद्धिक वर्ग का कॉफी हाउसों के प्रति घटता अनुराग या फिर वहां की चिल्ल-पों से हुई विरक्ति का नाम भी दे सकते हैं। कुछ भी कहें, कॉफी हाउसों में दिखने वाली वैचारिक बहसों व विमर्शों के कल्चर में काफी गिरावट आई है। कॉफी हाउस आज वीपीओ कर्मियों और कॉरपोरेट एजेंटों का अड्डा बनते जा रहे हैं। कॉफी हाउस अब अतीत बन चुका है : प्रो. लाल बहादुर वर्मा कॉफी हाउस साहित्यकारों , पत्रकारों और बौद्धिक वर्ग का जीवंत और प्राणवंत स्थान रहा है। जयप्रकाश

धुंधली यादों का सफर, बनते बिगड़ते रिश्तों की अनकही कहानी

बंकू को देखते ही मुझे मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास नेता जी कहिन के पात्र की याद आ जाती है। दाल-भात और लिट्टी चौखा बनाकर इम्प्रेश जो किया था उसने मुझे। हालांकि, उसके प्रति मेरे मन में कोई पूर्वाग्रह और बैर नहीं है। वो जो सबके लिए है वैसा ही मेरे लिए भी है। किसी एक लिए बुरा होने जैसा गुण या फिर अवगुण मैंने वेंकटेश में कभी नहीं देखा। वो समय के हिसाब से राजनीतिक विद्या में माहिर है, ऐसा मेरा नहीं उसका खुद का मानना है। लेकिन, कुछ लोग कहते हैं उसकी चाल पहले ही समझ में आ जाती है।  ..................... हर सफर की शुरुआत उत्साह और जुनूनी ख्यालों से शुरू होती है। मन में कई तरह के सवाल, उधेड़बुन और जवाब खोजती प्रश्नवाचक आकृतियां बनती और बिगड़ती हैं। सपने बड़े होते हैं और इनके बीच की दूरियों को कम करने के लिए हम चल पड़ते हैं, एक अनजान रास्ते पर। गांव, देहात और कस्बों की घास-फूस की झोपड़ी और कच्चे मकानों की दुनिया से उड़ान भरते हुए हमारे ये सपने शहर की दहलीज पर पहला कदम रखती हैं। हम खुशी में झूमते हैं। पहली सीढ़ी पार करने की तसल्ली हमें रोमांचित कर देने वाली संतुष्टि का अनुभव कराती है। शहर
इंसान की नब्ज पकड़ने में माहिर ठग ठग प्रयोगधर्मिता में माहिर होते हैं। उनके ठगने के तरीके बेहद सदे होते हैं। लाख कोशिश कर लो उनके चंगुल में फंस ही जाओगे। इंसान की नब्ज पकड़ने की कला में माहिर ठगों का गिरोह आजकल नोएडा में अपना अड्डा जमाए हुए है। पिछले छह महीने से ये गिरोह रास्ता रोक भोले-भाले लोगों को अपना शिकार बना रहा है। कुछ दिन पहले नोएडा के 12-22 सेक्टर में इस गिरोह की चुपड़ी बातों में हम भी आ गए। अग्रवाल स्वीट से आगे बढ़े ही थे कि अचानक एक आदमी, गोद में दुधमुंहा बच्चा लिए औरत और नंगे पैर चल रहे एक बच्चे ने रास्ता रोक लिया। स्थिति समझ में आती इससे पहले ही व्यक्ति ने अपने भूखे बच्चे की दुहाई देकर पैसों की फरमाइश कर डाली। साथ में खड़ी औरत एकदम शांत, उम्मीदभरी नजरों से सिर्फ टुकुर-टुकुर ताक रही थी। बच्चे की दशा देखकर हमने उसे कुछ खाने का सामान दिलाया। साथ ही उसके यों भीख मांगने का कारण भी जानना चाहा। व्यक्ति ने अपनी इस दशा का कारण एक ठेकेदार को बताया। उसका कहना था कि ठेकेदार ने उन्हें मजदूरी के लिए महाराष्ट्र से यहां बुलाया था, अब दो दिन से वो फोन नहीं उठा रहा है। ऐसे में उनक
अंधविश्वास की सामाजिक जकड़न हमारा विश्वास ही अंधविश्वास में तब्दील होता है। बचपन में कई तरह का विश्वास मसलन, आम के पेड़ के नीचे मत जाना, वहां भूत रहता है। दोपहर में अकेले उस रास्ते पर चलने से छल लगता है। घर से बाहर निकलते वक्त छींकना , बिल्ली का रास्ता काटना और रोना अशुभ होता है। और न जाने क्या-क्या लंबी फेहरिस्त है ! अरे हां, एक और शामिल है इस लिस्ट में- आंख का फड़कना। लेकिन, धीरे-धीरे जब हम चीज़ों के ऊपर सोचने की प्रक्रिया से गुजरने लगे तो लगा, अरे यह तो निरी मुर्खता है। कोई छींक दे तो क्या हम अपना महत्वपूर्ण काम टाल देंगे ? बिल्ली रास्ता काट देगी तो क्या हम पेपर देने नहीं जाएंगे ? बहुत बार दिल नहीं माना, लेकिन काम इतना महत्वपूर्ण था कि उसे जबर्दस्ती मनाया। जैसे मंगलवार को शराब न पीने वाले, अगर पी लें तो, पहली भूल हनुमान जी भी माफ करते हैं, कहकर मन को मना लेते हैं। बचपन में सुनी और विश्वास की गई ऐसी ही कितनी चीज़े कई सालों तक अंधविश्वास बनकर साथ चलती रही। फिर सोचा, भई बिल्ली को भी रास्ते पर चलने का अधिकार है । छींक का आना स्वभाविक है, सर्दी लगने पर, नाक में धुल-मिट्टी जाने प

‘धर्म’ का उद्देश्य मानवता का सुख

स्वामी विवेकानंद के व्यक्तित्व, महानता और दर्शन को एक लेख में बांधना संभव नहीं है. फिर भी स्वामी जी के उपदेशों में से ‘ धर्म ’ पर उनकी व्याख्या को उद्धरित किया जा रहा है. स्वामी जी को पढ़ने के दौरान इसी ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया.     वैसे तो स्वामी जी की सभी शिक्षाएं व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास के लिए महत्वपूर्ण है. लेकिन उनकी ‘ धर्म ’ की व्याख्या हमें सही मायने में इंसानियत और इंसान का पाठ समझाती हैं. स्वामी जी मनुष्य को सुखी बनाने वाले धर्म को ही वास्तविक धर्म की संज्ञा देते थे. वो अपने शिष्यों से कहते थे कि जो धर्म मनुष्य को सुखी नहीं बनाता, वो वास्तविक धर्म है ही नहीं. उसे मन्दाग्निप्रसूत रोग विशेष समझो ’. स्वामी जी कहते थे, धर्म वाद-विवाद में नहीं है, वो तो प्रत्यक्ष अनुभव का विषय है. जिस प्रकार गुड़ का स्वाद खाने में है, उसी तरह ‘ धर्म ’ को अनुभव करो, बिना अनुभव किए कुछ भी न समझोगे. स्वामी जी अपने शिष्यों से अक्सर कहा करते थे- “ धर्म का मूल उद्देश्य है मनुष्य को सुखी करना. किंतु परजन्म में सुखी होने के लिए इस जन्म में दु : ख भोग करना कोई बुद्धिमानी का काम नहीं ह