बंकू को देखते ही मुझे
मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास नेता जी कहिन के पात्र की याद आ जाती है। दाल-भात और
लिट्टी चौखा बनाकर इम्प्रेश जो किया था उसने मुझे। हालांकि, उसके प्रति मेरे मन
में कोई पूर्वाग्रह और बैर नहीं है। वो जो सबके लिए है वैसा ही मेरे लिए भी है।
किसी एक लिए बुरा होने जैसा गुण या फिर अवगुण मैंने वेंकटेश में कभी नहीं देखा। वो
समय के हिसाब से राजनीतिक विद्या में माहिर है, ऐसा मेरा नहीं उसका खुद का मानना
है। लेकिन, कुछ लोग कहते हैं उसकी चाल पहले ही समझ में आ जाती है। .....................
हर सफर की शुरुआत उत्साह और
जुनूनी ख्यालों से शुरू होती है। मन में कई तरह के सवाल, उधेड़बुन और जवाब खोजती
प्रश्नवाचक आकृतियां बनती और बिगड़ती हैं। सपने बड़े होते हैं और इनके बीच की
दूरियों को कम करने के लिए हम चल पड़ते हैं, एक अनजान रास्ते पर। गांव, देहात और
कस्बों की घास-फूस की झोपड़ी और कच्चे मकानों की दुनिया से उड़ान भरते हुए हमारे
ये सपने शहर की दहलीज पर पहला कदम रखती हैं। हम खुशी में झूमते हैं। पहली सीढ़ी
पार करने की तसल्ली हमें रोमांचित कर देने वाली संतुष्टि का अनुभव कराती है।
शहर में हमारी मुलाकात अपने
जैसे कई लोगों से होती है। गांव और कस्बे बदल जाते हैं, लेकिन सपने सबके एक जैसे
होते हैं।
कई जीती-जागती आकृतियां
यादों में सिमटी हुई
यादें कहां मिटती हैं! बंद संदूक में पड़ी पोथली
की तरह इन पर धूल-मिट्टी जम जाती है और हम कभी न कभी संदूक खोल, ऊपर जम चुकी गर्द
की पड़त को हटाते हैं। परत के हटते ही हम स्मृतियों के गहरे कुएँ में उछल-कूद करने
लगते हैं और सारी जीती-जागती आकृतियां हमसे बतियाने लगती हैं। हमारे चेहरे की
मुस्कान स्वत: ही प्रस्फुटित हो उठती है। गालों में उभार आ जाता है और आंखों की चमक चेहरे
पर रौनक ला देती है।
मेरी यादों में भी कई
आकृतियां धुंधली परत के साथ जमा है। ये सब यादें गगनचुंबी इस शहर की धेली में कदम
रखने के साथ ही मेरी जिंदगी का अहम हिस्सा बन गईं थी। आज भी हैं। फिलहाल इन यादों
के पिटारे को खोलने का कोई मकसद नहीं है और न ही संदूक खोलने की इच्छा हो रही है।
नई यादें जो अब धुंधली हो
जाएंगी
एक यादों का पिटारा बंद है,
दूसरा बंद होने जा रहा है। अब ये यादें धुंधली पड़ती जाएंगी और कहीं किसी रोज फिर
एक दिन एक ऐसा तूफान जी में उमड़ेगा कि सारी धुंधली यादें नाचने- गाने लगेंगी। उस
दिन सारी स्मृतियां ताजी हो उठेंगी। .... इन नई यादों का अड्डा एक छोटा सा
परिसर है। जहां से पत्रकारिता की क्लासिस का संचालन होता है और हम बहुत जल्दी
स्नातकोत्तर की डिग्रियां हासिल कर लेते हैं। इस परिसर से मेरा संबंध तो रहा,
लेकिन इसका अहम हिस्सा बनने में थोड़ी कमी रह गई। बाद-बाद में जाना बेहद कम हो
गया, इसकी टीस सालती है, लेकिन कहीं किसी बात की तसल्ली भी है। मुझे जानने वालों
को इस परिसर के नाम से अवगत कराने की ज़रूरत नहीं है और जो नहीं जानते उन्हें
परिचय करा देता हूं- माखनलाल पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्याल नोएडा कैंपस
जब बने नए रिश्ते, खत्म जो
होते नहीं जल्दी
यहीं से हम सब का परिचय
एक-दूसरे से हुआ। यहीं से हम एक-दूसरे के दोस्त बनें और फिर रूममेट कहे जाने लगे।
अमित, पटेल और मैंने एक-साथ रहने का फैसला किया। परिचय होते ही हमें एक-दूसरे की
किसी न किसी खासियत ने ज़रूर आकर्षित किया होगा, इसलिए एक-साथ रहने का फैसला किया
गया। कम से कम मुझें ऐसा ज़रूर लगता है।
हालांकि, बहुत जल्दी घटनाएं
कुछ इस तरह घटी कि पटेल को कॉलेज छोड़ जाना पड़ा और रह गए हम दो। पटेल के अंदर की
दलित अस्मिता मुझे काफी अच्छी लगती थी और हम अक्सर इस बारे में बातें भी करते थे।
अमित के अंदर मुझे शुरुआती दिनों में एक जुनून दिखा, जो उसकी बातों से झलकता था।
और फिर वो बहुत सी चीज़ों को छोड़कर पत्रकारिता के पेशे में करियर बनाने के लिए
आया था, जो वाकई में अनोखी थी, क्योंकि शायद ही क्लास में कोई इस तरह नौकरी और
बिजनेस को छोड़कर पत्रकार बनने आया हो। इस तरह कुछ चीज़ें थीं, जो वाकई में मुझे
अच्छी लगती थीं, प्रारंभिक दिनों में। धीरे-धीरे क्लास के बाकी लोगों से परिचय हुआ
और हम कहलाए एमजे वाले। एमजे अस्मिता के मामले में देवेश त्रिपाठी भाई से
प्रतिबद्ध मुझे कोई नहीं दिखा, शायद एमजे वाले या फिर हर बात पर एमजे हमने उन्हीं
से सीखा।
पटेल के जाने के कुछ महीनों
बाद आशुतोष ने तीसरे रूममेट के तौर पर हमारे कमरे में प्रवेश किया। इस तरह फिर हम
तीन हो गए।
बंकू का पदार्पण
बंकू को देखते ही मुझे
मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास नेता जी कहिन के पात्र की याद आ जाती है। दाल-भात और
लिट्टी चौखा बनाकर इम्प्रेश जो किया था उसने मुझे। हालांकि, उसके प्रति मेरे मन
में कोई पूर्वाग्रह और बैर नहीं है। वो जो सबके लिए है वैसा ही मेरे लिए भी है।
किसी एक लिए बुरा होने जैसा गुण या फिर अवगुण मैंने वेंकटेश में कभी नहीं देखा। वो
समय के हिसाब से राजनीतिक विद्या में माहिर है, ऐसा मेरा नहीं उसका खुद का मानना
है। लेकिन, कुछ लोग कहते हैं उसकी चाल पहले ही समझ में आ जाती है।
बंकू ने आते ही कुछ दिनों
के बाद घर का हिसाब किताब संभाला और वो
हमारे रूम का मुखिया कहलाया। हालांकि, मुखिया नाम की उत्पत्ति उसके
बह्मेश्वर मुखिया के समर्थक होने की वजह से हुई । इस पर मेरी और उसकी क्लासिस में
कई बार बहस हुई, और वो मुखिया का समर्थक बने रहा और फिर कुछ दिनों बाद खुद ही
मुखिया के नाम से जाना जाने लगा। कभी मन करता है, बंकू के ऊपर एक कहानी ही लिखी
जाए, लेकिन अभी नहीं! बंकू प्रसिद्ध है सब उसके बारे में कुछ न कुछ जानते हैं।
पता नहीं मुझे उसके बारे में लिखने में इतना मजा क्यों आ रहा है और लग रहा है कि
सबसे ज्यादा अगर मैं किसी के बारे में लिख सकता हूं, तो वो बंकू ही है। उसकी
सहनशीलता और खुरापाती दिमाग दोनों का गठजोड़ बेहद मजबूत है। ...नज़रें हुई
बदनाम, हम तो ऐसे नहीं थे
आशुतोष ऊर्फ पांडू ने जितनी रोटियां हमें खिलाई हैं शायद ही
कोई अपने रूम पार्टनर को खिलाए। गजब का आत्मविश्वास, रविश को घर पर खाने पर बुलाने
की हिम्मत। अपनी चीज़ को न चाहते हुए भी छिपा कर रखने की प्रवृत्ति।....बात करने
का सलीका.....इस तरह ये हमारे कमरे की दुनिया थी, जो अमित के कॉलेज छुटने के बाद
बिखर गई। उसने कहीं और रहने का फैसला कर लिया।.....
अंकिता मेरी वैचारिक साथी
है। हर वक्त काम आने वाली एक मित्र। बहुत कम लोगों से ऐसा जुड़ाव हो पाता है जिस
तरह अंकिता से है, शायद इसके पीछे वैचारिक रूप से लगभग एक जैसा या एक दूसरे की बात
को समझना है। जागृती और नवदीप मेरे सबसे अच्छे दोस्तों में शामिल हैं। कहते हैं
दोस्तों की परख विपत्ति में होती है और विपत्ति में इन दोनों और अंकिता ने मेरा
बहुत साथ निभाया है, वो भी ऐसे वक्त में जब नोएडा से दूर था।.......
सुरभि, रेणुका, पवन,
प्रिया, पाठक, ऐश्वर्य, सुधा, काव्या, अरविंद, आरिफ, .......सभी इन स्मृतियों का
अहम हिस्सा है। किसी के बारे में न लिखने का मतलब उससे बैर नहीं, इंसान कहां सबके
बारे में लिखता है।.....सभी को शुभकामनाएं, पत्रकारिता में सबका उज्ज्वल भविष्य
हो....
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें