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मैं रोज बदल रहा हूं

कहीं दूर एक कुटिया हो... उसमें मैं रहूं। बेफ्रिक, बेख्याल ना आज की घबराहट। ना कल का डर झोंके संग बहू किनारा पे रुक जाऊं.. फुटपाथ पर सोऊं घंटों बैठू रातभर जागू जीभर घूमूं-----1 सच कहूं ये जो सजी हुई हैं अलमारी में हर महीने खरीदी किताबें इन्हें पढ़ना चाहता हूं और अगले ही पल उस घेरे में घिर जाता हूं जिस घेरे में हूं...2 मेरी संवेदनाएं मर रही हैं खोखला हो रहा हूं स्वभाव बदल रहा है कुछ भी नहीं भाता झूठा लगता है सबकुछ.....3 कविताएं सुकूं नहीं देती कहानियां रोमांच पैदा नहीं करती सब फीका है पलभर के लिए आकर्षित होता हूं अगले ही पल मिथ्या-सा......4 अजान की आवाज कोफ्त पैदा करती है कीर्तन कानों में गर्म तेल उढेल देते हैं लोग झूठे लगते हैं बौद्धिकता दिखावटी ज्ञान विस्फोटक भ्रम राजनीति बकवास साहित्य पुलिंदा अख़बार रद्दी...5 मैंने कुछ नहीं देखा फिर भी सबकुछ मकड़ी का जाल लगता है हर पल। हर रोज। मुझे लगता है मैं अवसाद ग्रसित हो रहा हूं...6 1,2, 3,4, 5 और 6 की भांती रोज बदल रहा हूं (9 मार्च 2017 को लिखी कविता)