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किसी को तो पड़ी हुई लकड़ी लेनी पड़ेगी साहब! पुलिस सेवा के लिए है या अपशब्दों के लिए?

पुलिस वैन में सर्वेश कुमार मैं बचपन से ही पुलिस वालों से चार क़दम दूर भागता हूं. कारण उनका रवैया रहा है. बहुत कम पुलिसकर्मी होंगे जो आपसे सलीक़े से बात करेंगे. नहीं तो रौब दिखाना उनकी प्रवृत्ति में शामिल होता है. शायद ये एक तरीक़ा हो अपराधी को तोड़ने और अपराध का पता लगाने के लिए. लेकिन, जब ये ही रवैया पुलिस आम नागरिकों पर अपनाने लगती है, तो उसकी छवि धूमिल हो उठती है. उसके प्रति आम नागरिक के मन में डर पैदा हो जाता है. आम नागरिक पुलिस से कतराने लगते हैं जिसका ख़ामियाजा समाज को उठाना पड़ता है, क्योंकि बहुत-सी घटनाओं में नागरिक ‘पुलिस के चक्कर में कौन पड़े कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं.’ मैंने ऊपर जो लिखा है इसका मतलब ये कतई नहीं है कि सारे पुलिसकर्मी एक से होते हैं…लेकिन कुछ पुलिसकर्मियों की बदौलत उनको यह तमगा पहनना पड़ता है. \जब पुलिसकर्मी ने कहा- तुम क्यों पड़ी हुई लकड़ी ले रहे हो? आज यानी की शुक्रवार सुबह जब सर्वेश कुमार नाम के एक पुलिसकर्मी ने मुझसे कहा कि तुम क्यों पड़ी हुई लकड़ी ले रहे हो. तब से मेरा मन बेहद व्यथित है. मैं एक ही बात सोच रहा हूं कि जब लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाले मी

बचपन के दोस्तों से बातें करना मतलब- स्मृतियों के रूप में बीते पलों का वापस लौटना

कभी-कभार बचपन में लौट जाना कितना सुकून देता है। पुरानी स्मृतियों को छूकर वापस लौटना भीतर की रिक्तता को भर देता है। उदासी छूमंतर हो जाती है, और चेहरे पर ख़ुशी लौट आती है। बचपन के दोस्तों की दास्तां और गुज़रे ज़माने के वो पल सबसे अनोखे होते हैं, जो कहीं गहरी तहों में दबे रहते हैं और जब उकेरे आंखों के आगे घूमने लग जाते हैं। आप वापस वहां पहुंच जाते हैं, जहां बस ख्वाबों और पुरानी स्मृतियों के ज़रिए ही पहुंचा जाता है। इसलिए ही कहते हैं, बीता पल वापस नहीं लौटता...बीतें पलों के रूप में वापस लौटती हैं यादें और स्मृतियां.. जो शरीर के ख़ाक होने के साथ ही विस्मृत होती हैं। अभी अचानक स्कूल के दोस्तों की यादें ज़ेहन में उभर आई। एक-एक कर सबसे चेहरे आंखों के आगे घूमने लगे। फटाफट फोन निकाला और मिला डाला। दूसरी तरफ, देवव्रत था। फिर दीपक भट्ट जुड़ा और थोड़ी देर के लिए उमेश चौहान भी आया पर उसकी व्यस्तता और वातावरण के शोर, कोलाहल और मशीनी हो हल्ले ने कॉन्फ्रेंस कॉल से दूर कर दिया। क़रीब एक घंटे तक बातचीत का सिलसिला चलते रहा। जब बचपन के दोस्तों के साथ बातें होती हैं, तो बस होती ही चली जाती हैं। संवाद  अगर ल

मिलिए, उत्तराखंड के उस शख्स से जिनका पीएम मोदी ने 'मन की बात' में लिया नाम

(जगदीश कुन्याल) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को 'मन की बात' कार्यक्रम में उत्तराखंड के बागेश्वर निवासी जगदीश कुन्याल के पर्यावरण संरक्षण और जल संकट से निजात दिलाने वाले कार्यों की सराहना की। पीएम मोदी ने कहा कि उनका यह कार्य बहुत कुछ सीखाता है। उनका गांव और आसपास का क्षेत्र पानी की जरूरत को पूरा करने के लिए एक प्राकृतिक जल स्त्रोत पर निर्भर था। जो काफी साल पहले सूख गया था। जिसकी वजह से पूरे इलाके में पानी का संकट गहरा गया। जगदीश ने इस संकट का हल वृक्षारोपण के जरिए करने की ठानी। उन्होंने गांव के लोगों के साथ मिलकर हजारों की संख्या में पेड़ लगाए और सूख चुका गधेरा फिर से पानी से भर गया। कौन हैं जगदीश कुन्याल दरअसल, जगदीश कुन्याल पर्यावरण प्रेमी हैं और उन्होंने अपनी निजी प्रयास से इलाके में हजारों की संख्या में वृक्षारोपण किया जिसकी वजह से सूख चुके पानी के गधेरे में जल धारा फिर से प्रवाहित हुई। वह गरुड़ विकासखंड के सिरकोट गांव के रहने वाले हैं। पूर्ण ज्येष्ठ प्रमुख भी रहे हैं। उन्होंने अपने इस भगीरथ प्रयास की बदौलत न सिर्फ गांव वालों के लिए मिशाल पेश की है, बल्कि सूबे के सभी

किसान आंदोलन में फ्री में दाड़ी बनाने और बाल काटने वाले उत्तराखंड के एक शख्स की कहानी

जो कंटेंट अच्छा होता है और जिसमें मानवीय भावनाएं, संवेदनाएं और सौहार्द के संदेश की सीख होती है, उसे वायरल होने में वक्त नहीं लगता। पिछले दिनों ऐसे ही एक वीडियो पर नज़र गई, जिसकी ऑर्गेनिक रीच 1 मिलियन से ज्यादा हो चुकी है और 5 हजार से ज्यादा टिप्पणियां और 15 हजार से ज्यादा लाइक आ चुके हैं। यह वीडियो है उत्तराखंड के एक ऐसे शख्स की कहानी का जो किसान आंदोलन में आंदोलनरत किसानों के फ्री में बाल काट रहा है और दाड़ी बना रहा है।  इस श़ख्स की कहानी से पहले इस वीडियो को बनाने वाले पत्रकार आशुतोष पांडे की जुंबानी ' 'शौक़-ए-दीदार अगर है, तो नज़र पैदा कर'। मैं जब किसान आंदोलन में गया, तो वहां मंच माला और माइक के माध्यम से किसान नेता अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे थे। कहीं कुश्ती चल रही थी, तो कहीं मोदी विरोधी नारे लग रहे थे। इन सबके बीच मुझे एक शख्स दिखा, जिसका नाम शहनवाज था। जो एक कुर्सी रखकर आंदोलनकारी किसानों की दाड़ी बना रहा था।  कड़ाके की ठंड थी। उसके पास संसाधन के नाम पर सिर्फ एक कुर्सी...सेविंग किट और एक शीशा था। वह मुस्कराते हुए आंदोलनकारी किसानों की दाड़ी बना रहा था और बाल काट रहा था।