कभी-कभार बचपन में लौट जाना कितना सुकून देता है। पुरानी स्मृतियों को छूकर वापस लौटना भीतर की रिक्तता को भर देता है। उदासी छूमंतर हो जाती है, और चेहरे पर ख़ुशी लौट आती है। बचपन के दोस्तों की दास्तां और गुज़रे ज़माने के वो पल सबसे अनोखे होते हैं, जो कहीं गहरी तहों में दबे रहते हैं और जब उकेरे आंखों के आगे घूमने लग जाते हैं। आप वापस वहां पहुंच जाते हैं, जहां बस ख्वाबों और पुरानी स्मृतियों के ज़रिए ही पहुंचा जाता है। इसलिए ही कहते हैं, बीता पल वापस नहीं लौटता...बीतें पलों के रूप में वापस लौटती हैं यादें और स्मृतियां.. जो शरीर के ख़ाक होने के साथ ही विस्मृत होती हैं।
अभी अचानक स्कूल के दोस्तों की यादें ज़ेहन में उभर आई। एक-एक कर सबसे चेहरे आंखों के आगे घूमने लगे। फटाफट फोन निकाला और मिला डाला। दूसरी तरफ, देवव्रत था। फिर दीपक भट्ट जुड़ा और थोड़ी देर के लिए उमेश चौहान भी आया पर उसकी व्यस्तता और वातावरण के शोर, कोलाहल और मशीनी हो हल्ले ने कॉन्फ्रेंस कॉल से दूर कर दिया। क़रीब एक घंटे तक बातचीत का सिलसिला चलते रहा। जब बचपन के दोस्तों के साथ बातें होती हैं, तो बस होती ही चली जाती हैं। संवाद अगर लंबे वक्त के बाद हो रहा हो..स्कूल, बचपन, शैतानियां, ट्यूशन, प्यार, दोस्ती, झगड़ा और न जाने कहां से कहां पहुंच जाती हैं, बातें। ख़ुद को भी नहीं पता चलता कौन-सी स्मृति कहां से निकल आती है।
बातों के केंद्र में चीनी मिल जहां बचपन बीता
बात कुछ भी हो रही हो 'चीनी मिल सितारगंज' से जुड़ ही जाती है। दरअसल, यह शुगर फैक्ट्री तीन साल पहले बंद हो चुकी है। तात्कालिक त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने अध्यादेश लाकर चीनी मिल पर ताला जड़ दिया और कर्मचारियों को वीआरएस (स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना) देकर घर बैठा दिया। चीनी मिल एक जरिया था, हम दोस्तों के मिलने का। यहां का सरकारी क्वाटर हमेशा अपना ही घर लगा। हममें से कई दोस्त इन मकानों में ही पैदा हुए...कॉलोनी में खेले और यहीं से पढ़- लिखकर बाहर निकले। साल में एक बार तीज-त्योहार पर यहीं बचपन के दोस्तों से मुलाकात हो जाती थी, जो कि अब संभव नहीं है।
फैक्ट्री बंद हुई तो मजदूरों और अधिकारियों के विस्थापन का दौर शुरू हुआ। रिश्तों का बिखराव हो गया। अभी जब दीपक और देवव्रत से बात खत्म हुई, उमेश का फोन आ गया। उसका कहना था- 'इतने शहर बदल लिए। जहां जाना होता है, किराये का कमरा लेना होता है, लेकिन चीनी मिल की तरह कोई क्वाटर अपना घर नहीं लगता।' फैक्ट्री के बंद होने की कहानी फिर कभी!!! हम तीनों बातचीत में मशगूल थे, तभी पता नहीं कहां से बात हिंदी और साइकिल पर आई गई। देवव्रत मुझसे कहा-'तू तो पांचवीं के बाद चीनी मिल आया। पता नहीं कहां जंगल और पहाड़ से आया था!! हिंदी बोलनी भी नहीं आती थी। पहाड़ी ही बोलता था।' उसकी इस स्मृति को सुनकर मुझे जिज्ञासा होने लगी कि वो कुछ और ऐसे किस्से बताए, जो मेरी स्मृतियों से गुम हैं।
उसने आगे कहा- 'तूने तो साइकिल भी चीनी मिल में ही देखी।' उसकी बात सही थी। पहाड़ पर कहां साइकिल चलती है। वो भी जब आपका गांव दूर-दराज के एक ऐसे छोर पर हो, जो सड़क से एकदम कटा हुआ, जंगल के नीचे तलहटी में.. तो स्वभाविक ही है, आप साइकिल शहर में ही देखेंगे। साल 2000... उत्तराखंड बना और मैं पहली बार तराई से भाभर आया जहां पूरे एक साल तक मुझे अपना-सा कभी नहीं लगा!!! मैं सोचता मेरे राज्य तो मेरा गांव ही है।
मैंने बातचीत के दौरान कहा- 'यार.. क्या हमारी स्कूल टाइम की कोई फोटो नहीं है?'
'उस वक्त हमारा पास कैमरे वाला फोन नहीं था।' हंसते हुए देवव्रत ने जवाब दिया।
दीपक इनदिनों हल्द्वानी है और देवव्रत सितारगंज। मैं नोएडा।
मैंने दीपक से पूछा उसे मेरे स्कूल के वक्त की कोई बात याद है। उसने कहा- तू सपोर्ट टाइप शूज पहनता था जिनमें लाइट जलती थी। मैंने याद करने की कोशिश की पर हंसी के सिवा ऐसी कोई स्मृति नहीं उभरी। आखिरी बार हम होली में मिले थे। पता नहीं उस वक्त कैसे यह फोटो खींच ली गई थी, जो बड़ी मुश्किल से खोजने पर मिली है। जिनके साथ जीवन के सुनहरे पल की यादें होती हैं, उनके साथ तस्वीरें मुश्किल से मिलती हैं।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें