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कॉफी टेबल पर नहीं रची गई है अर्बन नक्सल थ्योरी: कमलेश कमल

कमलेश कमल की पैदाइश बिहार के पूर्णिया जिले की है. उनका उपन्यास ‘ऑपरेशन बस्तर: प्रेम और जंग’ चर्चित रहा है और कई भाषाओं में अनुवादित भी हुआ है. यह नॉवेल यश पब्लिकेशंस से प्रकाशित हुआ है. हाल ही में उनकी भाषा विज्ञान पर नवीन पुस्तक ‘भाषा संशय- सोधन’ भी आई है. इस सीरीज में उनसे उनकी किताबों और रचना प्रक्रिया के बारे में बातचीत की गई है.



मेरी संवेदनाओं और मनोजगत का हिस्सा है बस्तर

कमलेश कमल का उपन्यास ‘ऑपरेशन बस्तर: प्रेम और जंग’ (Operation Bastar Prem Aur Jung) का कथानक नक्सलवाद पर आधारित है. उनका कहना है कि बस्तर कहीं न कहीं मेरी संवेदनाओं, भाव और मनोजगत का हिस्सा है. मैं ढ़ाई साल बस्तर के कोंडागांव (KONDAGAON BASTAR) में तैनात रहा. पूरा इलाका नक्सल प्रभावित है. नक्सलवाद को न सिर्फ मैंने समझा बल्कि बस्तर की वेदना, पूरी आबोहवा को जाना एवं अनुभूत किया है. एक लेखक को अनुभूत विषय पर ही लिखना चाहिए.


लेखक का लेखन किसी ऐसे विषय पर इसलिए नहीं होना चाहिए कि वो सब्जेक्ट चर्चित है. बल्कि वह विषय उसके अनुभव और भाव जगत का हिस्सा भी होना चाहिए. नक्सल केंद्रित जितने भी उपन्यास हैं, उनमें या तो सुरक्षाबलों का पक्ष है या फिर नक्सलियों का. मैंने अपने उपन्यास में ऐसी कोशिश की है कि समग्र दृष्टिकोण (Holistic Approach) पाठक के सामने आये. ये ही वजह है कि मैंने इस नॉवेल को देश के नौजवानों को समर्पित किया है और लिखा है कि वो नक्सलवादियों और सुरक्षाबलों दोनों का पक्ष समझें और तय करें कि किसके साथ खड़े हैं.


कॉफी टेबल पर नहीं रची गई है अर्बन नक्सल थ्योरी

‘लेखक से मिलिये’ कार्यक्रम में कमलेश कमल कहते हैं कि उनके उपन्यास में प्रेम ज्यादा जंग कम है. उपन्यास में नक्सल समस्या को समग्रता से समझने की चेष्टा है. वह कहते हैं कि ऐसा भी नहीं है कि दिल्ली या फिर शहरों से ही पूरा नक्सलवाद ऑपरेट होता है, समस्या कहीं और है और सपोर्ट कहीं और से मिल रहा है.  कमलेश कमल अर्बन नक्सलवाद की थ्योरी को भी नहीं नकारते. वह कहते हैं ‘अर्बन नक्सल थ्योरी कॉफी टेबल पर बैठकर रचि गई थ्योरी नहीं है. अर्बन नक्सल में बुद्धिजीवियों की भूमिका, उनका बौद्धिक सपोर्ट से इंकार नहीं किया जा सकता है.’


कमलेश कमल कहते हैं कि नक्सली इलाके में तैनाती होने पर बहुत से लोग इस्तीफा दे देते हैं, लेकिन मैंने वहां के मौसम से लेकर समस्या तक को समझने की कोशिश की और उसको कथानक का विषय बनाया. जिस वजह से पाठकों ने इस उपन्यास को सराहा.


साहित्यकार का काम मेहतर का है

ये ही वजह है कि साहित्य के शोधार्थी इस उपन्यास के नारी पात्रों पर शोध कर रहे हैं. तीन संस्करण आ चुके हैं. कमलेश कहते हैं कि भारतीय मानस मूलत: भावनात्मक है. कला और साहित्य हमारे मूल में उसी तरह से है जैसे आशावादिता. बस्तर में दु:ख, गरीबी और संताप के बाद भी आशावादिता है. उम्मीद की किरण है वहां के लोगों के भीतर. वह कहते हैं ‘जो कुछ है उससे बेहतर चाहिए दुनिया में बहुत गंदगी है साफ करने के लिए मेहतर चाहिए.’ साहित्यकार का काम मेहतर का है.


कमलेश कमल 17-18 सालों से साहित्य साधना में हैं. व्याकरण उनका प्रिय क्षेत्र है. कहते हैं ‘मेरी पूरी साधना शब्दों की साधना है. मैं शब्दों की कुंडली बनाता हूं.’ उनका मानना है कि साहित्यकार के लिए कोई भी अनुभव बुरा नहीं होता, हर अनुभव उसे परिपक्व बनाता है और उसके सृजन पक्ष को मजबूत करता है. बिहार के छोटे से गांव से आने वाले कमलेश कमल कहते हैं, ‘ शहरी-नक्सलवाद’ की बात करें तो यह न सिर्फ वैचारिक ईंधन देने की कोशिश करता है बल्कि हथियार जुटाने, दवाई पहुंचाने आदि से लेकर नई भर्ती करने तक में सहयोगी भूमिका में रहता है.


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