राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सम्मुख सभागार में हाल ही में 'बाज बहादुर चंद' नाटक देखने का मौका मिला. बाज बहादुर चंद सिर्फ एक नाटक का पात्र ही नहीं, बल्कि उत्तराखंड के इतिहास का अभिन्न हिस्सा है. यही वजह है कि आम दर्शकों के अलावा, उत्तराखंड के इतिहास और संस्कृति की समझ रखने वालों के लिए भी यह नाटक अहम था, क्योंकि अक्सर शोध की कमी और तथ्यों के इधर-उधर होने के चलते ऐतिहासिक नाटकों से समीक्षकों की असहमतियां बढ़ जाती हैं, और प्रश्न चिन्ह खड़े हो जाते हैं. एक नाटक, सिर्फ मंच पर निभाया गया किरदार ही नहीं बल्कि पीढ़ियों को शिक्षित करने का जरिया होता है. वो जितने शहरों में होता है, जितनी जगहों पर होता है, लोगों की समझ को विकसित करता है. ऐसे में तथ्यों के साथ अगर छेड़छाड़ होती है तो पूरी कहानी ही बदल जाती है.... कहानी बदलने का मतलब, इतिहास का बदलना. इस दृष्टि से देखें तो यह नाटक, सफल रहा. लेखक और निर्देशक ने इतिहास के साथ ही, कुमाऊं और गढ़वाल दोनों मंडलों की जनभावनाओं का ख्याल रखते हुए नाटक को बखूबी प्रस्तुत किया और लोक नृत्य और लोक संगीत के एक्सपेरिमेंट जरिए, दर्शकों को जड़ों से जोड़ा
ललित फुलारा पत्रकार और लेखक हैं. माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय से जर्नलिज्म में एम.ए किया। दैनिक भास्कर , ज़ी न्यूज़ , राजस्थान पत्रिका, न्यूज़18 और अमर उजाला जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में काम कर चुके हैं. वर्तमान में ज़ी मीडिया में चीफ-सब एडिटर हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, संस्मरण और कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं। 2022 में कैंपस-यूथ आधारित नॉवेल 'घासी: लाल कैंपस का भगवाधारी' प्रकाशित हुआ। उपन्यास को साहित्य आज तक ने शीर्ष दस किताबों में शामिल किया.