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महिला दोस्त के सामने अश्लीलों की तरह पेश आए, बिग बाजार स्टोर में उड़ाते रहे हमारे सम्मान की धज्जियां

मंगलवार शाम जीआईपी मॉल (नोएडा सेक्टर-18) के 'बिग बाजार' स्टोर में, मेरे व मेरी फ्रेंड के साथ बदसलूकी हुई। कपड़े के 'प्राइस टैग' के संबंध में। दरअसल जो प्राइस टैग लगा था कैश काउंटर पर उससे ज्यादा कीमत मांगी जा रही  थी जिसपर मैं सवाल कर रहा था। मैनेजर मुझे दूसरे रूम में ले गया जहां  करीब 10-12 लोगों ने ज़लील किया। मेरे साथ मेरी महिला मित्र भी मौजूद  थी। बावजूद वो अश्लील फब्तियां कसते रहे। अपमानित किए और  धमकाया। लगातार दबाव बनाते रहे- हम यह कबूल कर लें 'प्राइस टैग' हमने बदला है। उन सभी का व्यवहार गुंडों जैसा था। हमारी छवि की धज्जियां उड़ाते रहे। वो हंसें जा रहे थे। एक के बाद एक आता और हमें चोर ठहराते हुए-फब्तियां कसता। उंगली दिखाता और घर नहीं जाने देने की धमकी देता। हमने वीडियो फुटेज देखने की मांग की तो हमें गाली दी गई और बोला गया- 'तेरा बाप देखेगा पांच घटें बैठकर वीडियो फुटेज।' वो लोग इतने अंसवेदनशील थे कि मेरी महिला मित्र का भी लिहाज नहीं किया। यह वाकया ऐसे रेपूटेटिड स्टोर में किया गया जिसे सरकार ने करेंसी पेमेंट जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी के लिए चुना ह

अधूरा ही तो है सब-2

(साभार- मंजूषा नेगी पांडे जी की पेटिंग)  कई बार खुद से सवाल करता हूं। क्या अधूरा है? सांस तो पूरी चल रही है। दिल भी धड़क रहा है। भूख, प्यार और नींद भी पूरी है। फिर क्यों बार-बार इस अधूरेपन का अहसास जाग उठता है? गुनगुनी धूप, चिलचिलाती गर्मी, बादलों से ढके अलसाए दिनों में बुने ख्वाब तो कहीं अधूरे नहीं रह गए?  जागती आंखों से देखे गए सपने या फिर प्यार में डूबकर, रोमांस की कविता में तैरकर, किस्से-कहानियों में रमकर फिल्मों के संग-संग चलकर और प्रवाह में बहकर बिना सोचे समझे किए गए वायदे! या फिर सोच-समझकर खाई गई कसमें? क्या अधूरा रह गया है? जवाब तलाशता हूं तो सवाल खड़े हो जाते हैं। रास्ता वही है। सड़क और शहर भी वही है, बस कमरा बदल गया है। यादें वो ही हैं बस वक्त निकल गया है। महफिल में किस्सा छिड़ते ही बेफ्रिक होकर तैर आता हूं पुराने दिनों में, और साथियों को मेरी आंखों की नदियां सूखी दिखती हैं। फिर वही सवाल महक उठता है फिजाओं में, क्या अधूरा है? और मैं बताने लगता हूं- ख्वाहिश अधूरी रह गई है। ख्वाब अधूरे रह गए हैं। बाकि....इससे आगे मेरे शब्द ठहर जाते हैं और मैं फिर सोचने लगता हूं इससे

अधूरा ही तो है सब

स्पर्श आभासी ही होता है जब सिरहाने बैठी होती हो। करवटों के सहारे बाहों में भरने की व्यर्थ कोशिश अब आदत बन गई है। तकिया ही है पता है , फिर भी कहीं कुछ ऐसा है जो ‘ समझ ’ पर पर्दा डाल देता है। दृष्यों को  आंखों के आगे उकेर देता है। चेहरे पर खिलखिलाहट ले आता है। अधूरे सपनों में पूरे होने की आशा जगा देता है।  इस तरह रात बित जाती है , सांझ तक जो सांसे जिंदा रखती हैं वो तुम्हारे पास होने भर का एहसास ही तो है। किसे नहीं पता परछाई भर हो तुम। रोज की तरह सपनों में बुलाई गई और अभ्यास के जरिए पास बैठाई गई एक आभासी आकृति , जो छटपटाहट को कम कर देती है और जीने की इच्छा को बढ़ा देती है। इतना आसान नहीं है यह खेल जो चल रहा है।   इसके लिए छवियों को उकेरना पड़ता हूं , दृश्यों के साथ संवाद स्थापित करना पड़ता है। तब जाकर कहीं एक कड़ी बन पाती है अवचेतन में। इसके बाद हम घूमती रील के साथ सुनहरे दिनों के छांव तले बेफ्रिक होकर गमों को टांग आते हैं चीड़ की ऊंचाईयों पर। जिनके बारे में हमने कभी बात भी नहीं की होती है। बस एक चीज़ जो सबसे ज्यादा परेशान करती है वो तुम्हारी चुप्पी है जो टूटने का नाम ही न

प्रेम ने बदली मेघा श्रीराम की जिंदगी

मेघा श्रीराम कहती हैं कि मेरी संगीत में कतई रुचि नहीं थी। बचपन में मार खा-खा कर संगीत की शिक्षा ली। शनिवार का दिन आते ही मैं खौफ भर जाती थी , क्योंकि इस दिन मास्टरजी संगीत सिखाने के लिए आते थे। उस पर से हुआ ये कि 12 वीं कक्षा में मैं फेल हो गई। मैं पूरी तरह निरुत्साहित हो गई थी , तब दीदी को पढ़ाने एक लड़का आता था , उससे मुझे प्रेम हो गया और मेरी जिंदगी बदल गई। मोहब्बत के लिए बीएचचू में लिया दाखिला मैंने उस लड़के को पाने के लिए संगीत का सहारा लिया। संगीत सीखने के लिए बीएचयू , वाराणसी में दाखिला ले लिया। यहां भी मेरे मन में संगीत से ज्यादा प्रेम में था , क्योंकि मैं तो प्रेम के लिए ही यहां आई थी। इसके बाद धीरे-धीरे लोगों को सुना और संगीत में रुचि पैदा हुई और जेब खर्च के लिए स्टेज पर गाना शुरू किया। शिवाय में गाना अद्भुत अनुभव रहा जब मुंबई पहुंची तो शुरुआती दौर में नादिरा बब्बर से लेकर मकरंद देशपांडे तक के साथ थिएटर किया। 2011 में कोक स्टूडियो में गाने का मौका मिला। यह मेरी जिंदगी और करियर का अहम पड़ाव था। इसके बाद फिल्मों में भी गाने का मौका मिला। अजय देवगन की फि

कलाकार के लिए दर्शकों की ताली सबसे बड़ा पुरस्कार

नाम- पी वेट्री भूपथी जन्म- 30 अक्टूबर1979 (अंडमान निकोबार), मूलत: कर्नाटक के कुंभकोणम के रहने वाले हैं पुरस्कार- 2006 में तालमणी, 2015 में ताल वाद्य गुरु तिलगर, 2015 ताल वाद्य विटगर पुरस्कार संगीत- अमरीकी और ग्रीस फिल्म फेस्टिवल में सराही गई डॉक्यूमेंट्री एको धर्म। कार्यरत- राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के संगीत विभाग में तालवादक बैंड- रुद्राक्षम प्रस्तुतियां- संगीत नाटक अकादमी से लेकर चीन, मलेशिया और फिलिपिंस वेट्री भूमथी नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के संगीत विभाग में तालवादक हैं। पिता व कर्नाटक के प्रसिद्ध मृदंगम उस्ताद प्रेम कुमार से पांच साल की उम्र में संगीत की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा हासिल की। 10 साल की उम्र में सीसीआरटी और 18 साल की उम्र में एचआरडी स्कॉलरशिप मिली। पद्मभूषण केएन पणिक्कर, भास्कर चंद्रा और काजल घोष के साथ काम कर चुके हैं। रुद्राक्षम नाम का बैंड चलाते हैं। उज्बेकिस्तान के निर्देशक ओबिया कुली के साथ शेक्सपियर के किंग लेयर, पर्शियन और केन नाटकों में संगीत दे चुके हैं। दिल्ली के अरविंदो कॉलेज से बीकॉम ऑनर्स है। रेडियो और दूरदर्शन के बी ग्रेड आर्टिस्ट हैं। वेट्री

जहर और दूध

एमए दूसरे साल में आते ही दैनिक भास्कर में नौकरी लग गई। रूम में चार लोग रहते थे। एक दोस्त का फोन आया। मुझे लगा शायद बधाई देगा। फोन उठाते ही मैं ख़ुशी-ख़ुशी बोला 'हां भाई'। दूसरी तरफ से जो सुना माथे पर लकीरें खिंच गई। हमारा मुखिया बहुत गुस्से में था बोला 'घर में मिठाई के डब्बे के साथ ही जहर की शीशी भी लेकर आना'। 'दो लोग रात में मिठाई खाएंगे, मैं ज़हर पिऊंगा'। इतना कहते ही फोन कट। मैं इंटरव्यू देकर अभी ऑफिस के बाहर ही खड़ा था। तभी एक और फोन आया। अब मुझे लगा ज़हर की शीशी शायद दो ले जानी  होंगी। इस फ़ोन ने सांत्वना के दो शब्द कहे और सूचना दी कि मुखिया साहब 2 घंटे से नंगे बदन बैठे हैं और ज़हर पीने को उतावले हो रहे हैं।  55 सेक्टर से पहले ही खोड़ा उतरकर जलेबी पैक करवा ली। रूम में घुसते ही देखा मातम छाया है। मुखिया बीच में है, दो लोग घेरे बैठे हैं। जलेबी थाली में रख, सबसे पहले मुखिया की तरफ बढ़ाई। 'फुलारा साहब जहर कहाँ है' । 'पहले मीठा खा लो, फिर कड़वा पी लेना' मुखिया को प्रेम से जवाब दिया। 'भुमिहार का कमिटमेंट, सलमान खान से भी पक्का है। आज जहर पीकर ही रहूंग

मुखिया

पत्रकारिता में स्नातकोत्तर के दौरान मुखिया मेरा दोस्त बना। हमारी मित्रता की नींव कृष्ण-सुदामा के लौकिक-अलौकिक संबंधों की बजाय, नफा-नुकसान पर टिकी थी। उसे कमरे की दरकार थी, मुझे झटपट खाना बनाने वाले की। पहले दिन दाल-भात, चौखा खिलाया, दूसरे दिन मिठी-मिठी बातें की और तीसरे दिन 800 का तखत तोड़ डाला। मैं गुस्साता, इससे पहले ही फटा-फट तखत की अदला-बदली कर दी गई और सारा कसूर उस बढ़ई के सर डाल दिया, जो हमारे किराए के कमरे के बगल में काम कर रहा था और ‘स्टूडेंट हैं’ का रोना रोने के बाद दयाभाव से उसने हमारे लिए 1600 में दो तखत बनाए थे।  अभी भी मेरे कमरे में वही तखत है। सामने उसी पर इस वक्त छोटा भाई पैर में पैर डाल चैन की नींद ले रहा है। मुखिया से इंप्रेश होकर, कमरे के अगले हिस्सेदार के लिए मैंने उसका पुरजोर समर्थन किया, दद्दा और पंडित तो उसकी परछाई भी कमरे में नहीं पड़ने देना चाहते थे। इस तरह इलाहाबाद, पहाड़, ग्वालियर और बिहार एक कमरे में सिमट गया।  मुखिया हर बात पर खुलकर मेरा समर्थन करने लगा, अंदर से गदगद मुझे यही लगता सही बंदे से हाथ मिलाया है। कुछ दिन बीतते ही मुखिया ने

आंखों में पलते-बिखरते सपने

नब्बू के गांव में इनदिनों काफी रौनक है। मल्ला बाखली से तल्ला बाखली तक के घरों में बच्चों, औरतों और आदमियों की भरमार है। धूणी में सुबह-शाम भजन-कीर्तन हो रहे हैं। ‘ हिटो भुला, हिटो बैंणी पहाड़ जौलों ’ गीत पर महिलाएं जमकर थिरक रही हैं। गांव का रंगीन मिजाज देखकर नब्बू की अलसाई आंखों में चमक आ गई है। नजरें शहरों से आए हमउम्र बच्चों के चौड़े स्कीन वाले स्मार्टफोन पर गड़ी हुई हैं।   नब्बू भी इन बच्चों की तरह बैंजी बनाना ’ और ‘ टैंपल रन ’ की दुनिया में खो जाना चाहता है। जैसे ही दिन बित रहे हैं   नब्बू के जेहन में एक अजनबी डर उभरने लगा है। पहाड़ फिर से वैसे ही मुर्दा शांति से भर जाएगा ! घरों की धैलियां विरान हो जाएंगी। भजन- कीर्तन से गूंजनी वाली धूणी के बाहर कुत्ते अर्ध तंद्रा में लेटे होंगे। घरों में फिर से बड़े-बड़े ताले लटक जाएंगे। इस तरह का ख्याल दिमाग में कौंधते ही नब्बू की आंखों की रौशनी फिकी पड़ गई। चेहरा मुरझा गया है। लंबी खामोशी के बाद एकदम से तेज आवाज जिस तरह कानों को चुभने लगती है और कई बार दिल में घबराहट पैदा कर देती है, वैसे ही असुरक्षा और डर की भावना ने उसके दिल की ध

जीवन आसान है, हम इसे इतना कठिन क्यों बनाते हैं

'जिंदगी कैसी चल रही है?'  'बस कट रही है'।  ये दो ऐसी लाइने हैं जो अक्सर हमारी जुबान पर होती हैं। हम जीवन को जीते नहीं 'काटते' हैं, जैसे वो खेत की घास हो। 'काटने' से ही लगता है कि हम जीवन के प्रति कितने निराश और हताश हो चुके हैं, ऊब चुके हैं। क्या कभी इस सवाल का जवाब हम इस तरहे देंगे। 'बहुत बढ़िया चल रही है। आनंद आ रहा है। मौज हो रही है।' जिस दिन ऐसा बोलने लगेंगे 'जीवन सरल' होता चला जाएगा। ये जो काटना शब्द है अक्सर हमारा वास्ता इससे जवानी में पड़ता है। बचपन में हम जीवन को काटते नहीं बल्कि जीते हैं, मौजू की तरह। जैसे-जैसे बढ़े होते जाते हैं हमारे पास अपने लिए वक्त कम पड़ता जाता है और हम जीवन को काटने लगते हैं। इसलिए, जब जॉन जैडी कहते हैं- 'जीवन आसान है, हम इसे इतना कठिन क्यों बनाते हैं' तो यह बात हमें अंदर तक छू जाती है और इसपर सोचने को विवश हो जाते हैं। ...जैडी की तरह आप में से बहुतों को भी लगता होगा- 'जब मैं बच्चा था, सबकुछ आसान और मजेदार था।' क्यों था जब तक इसका जवाब खुद नहीं खोजेंगे सबकुछ था में ही चलता रहेगा। बहरह

नीड़ नहीं, नारी हूं मैं

नीड़ नहीं, नारी हूं मैं स्वतंत्र नहीं! पिंजर में हूं मैं कितने युग बदले? आज भी शासित और पति की अनुगामिनी हूं मैं अर्धांगनी हूं मैं मेरा अर्धांग नहीं अनुगमनीय नहीं नर के बाद ही पुकारी जाने वाली नारी हूं मैं।।       चूल्हे, चौखे से निकली        घूंघट में आंगन में बैठी        तो परिवार की प्यारी हूं मैं        मैंने नजरे मिलाई घूंघट हटा सड़कों पर निकली तो निर्लज्ज पुकारी हूं मैं नीड़ नहीं नारी हूं, मैं।। अभिशप्त है क्या जीवन? मैं ही पिसती हूं चक्की के दो पाटों में शैशव में, कैशौर्य में उसके बाद तो नियती बन जाती है कहां हूं स्वतंत्र मैं कब थी स्वतंत्र मैं बंधन और सामाजिक रीति-रिवाज क्या मेरी ही देह पर लागू होते हैं? मेरा प्रश्न है मैं स्त्री हूं, क्या इसलिए? मेरी भागीदारी है मेरी साझेदारी है मेरा पूरा सहयोग है घर में, परिवार में, देश में फिर चुड़ैल, कुलटा, कुलक्षणी, कलंकनी शब्द मेरे लिए ही क्यों? मेरी ही कोख से जन्म लेने वाली की नजरों में मैं ही द्वीतिय श्रेणी की! मां, मैं ही हूं बलात्कृत भी।।  ललित फुलारा साल 2011 में हमवतन वीकली न्यूज पेपर

बूंद उनकी याद दिलाती

बरसात का वो पल    भींगी जुल्फें   सरसराती हवा उन पर    मेघों की गर्जन    सहमे नयन कोयल-सा छटपटाता तन    बालों से ढक जाता दूधिया गालों का रंग निखर जाता अंग-अंग यौवन बन जाता आंखों का सप्तरंग।।                 नीला आसमां        काले-काले बादल        पत्तों पर गिरी बूंदें दिखती हैं कितनी सुंदर धूप की चादर फैल जाती पेड़-पौधों पर छट जाती पहाड़ों की धुंध   इधर-उधर।। नीड़ में चिड़ियां   चहकने लगती चूं-चूं कर चुंगती दाने उड़-उड़कर गोरिया सड़क पर घास की डलिया सिर पर रखकर गिली मिट्टी पर पदचिन्ह छोड़कर चल देती हैं वो सड़क से ऊपर आंख टिकी रहती दूर धार में पहुंचने तक       उनपर मेह फिर रिमझिमाती पदचिन्हों को भर जाती बूंद उनकी याद दिलाती।।    ललित फुलारा   दिसंबर 2011 में लिखी और फटे चिथड़ों से निकालकर आज टाइप की गई एक कविता