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आंखों में पलते-बिखरते सपने

नब्बू के गांव में इनदिनों काफी रौनक है। मल्ला बाखली से तल्ला बाखली तक के घरों में बच्चों, औरतों और आदमियों की भरमार है। धूणी में सुबह-शाम भजन-कीर्तन हो रहे हैं। हिटो भुला, हिटो बैंणी पहाड़ जौलों गीत पर महिलाएं जमकर थिरक रही हैं। गांव का रंगीन मिजाज देखकर नब्बू की अलसाई आंखों में चमक आ गई है। नजरें शहरों से आए हमउम्र बच्चों के चौड़े स्कीन वाले स्मार्टफोन पर गड़ी हुई हैं। 
नब्बू भी इन बच्चों की तरह बैंजी बनाना और टैंपल रन की दुनिया में खो जाना चाहता है। जैसे ही दिन बित रहे हैं  नब्बू के जेहन में एक अजनबी डर उभरने लगा है। पहाड़ फिर से वैसे ही मुर्दा शांति से भर जाएगा! घरों की धैलियां विरान हो जाएंगी। भजन- कीर्तन से गूंजनी वाली धूणी के बाहर कुत्ते अर्ध तंद्रा में लेटे होंगे। घरों में फिर से बड़े-बड़े ताले लटक जाएंगे। इस तरह का ख्याल दिमाग में कौंधते ही नब्बू की आंखों की रौशनी फिकी पड़ गई। चेहरा मुरझा गया है।

लंबी खामोशी के बाद एकदम से तेज आवाज जिस तरह कानों को चुभने लगती है और कई बार दिल में घबराहट पैदा कर देती है, वैसे ही असुरक्षा और डर की भावना ने उसके दिल की धड़कन बढ़ा दी। 



अब उसका मन ना तो पूरी तरह से स्मार्टफोन के स्क्रीन पर फोकस हो पा रहा है और ना ही हिटो भुला, हिटो बैंणी पहाड़ जौलों गीत पर थिरकती अप्रवासी महिलाओं पर! नब्बू की उम्र 13 साल है। वह अभी छठी से सांतवीं कक्षा में गया है। पहाड़ों मे लोगों को अपनों के लौटने की खुशी बाद में होती है, जाने का डर पहले घेर लेता है। इस बात का अहसास नब्बू को अच्छी तरह से है।

वह जानता है, उसका पहाड़ शहर की संकरी गलियों और हाईलैंड अपार्टमेंट में सिमट गया है। गांव विरान और बदहाल हो गया है। कई किलोमीटर तक कंप्युटर तो दूर, परचून तक की कोई दुकान नहीं है। एक टॉफी के लिए उसे नौबाड़ा और दाडूथान के चक्कर लगाने पड़ते हैं। डिजीटल इंडिया पर नब्बू आसमान तांकने पर मजबूर हो जाता है। 



नब्बू को स्मार्ट सिटी से क्या लेना देना। नब्बू, दिमाग की कोरी उपज नहीं है। वह अल्मोड़ा जिले के द्वाराहाट तहसील के पटास गांव का वाशिंदा है। पिछले 16 सालों में उसके गांव की 80-90 फीसदी आबादी पलायन कर चुकी है। गांव में करीब 30 लोग बचे हैं जिनमें अधिकतर बच्चे हैं। सुकुन इस बात का है कि अभी कुछ बुड्डी, कमर लचकाती महिलाओं की वजह से गोठ से उड़ने वाले धुएं की महक बची हुई है। नहीं तो बच्चे तो कब से अपनी इजाओं से स्मार्ट सिटी के छोटे-छोटे दड़बों में सिमटने की फरियाद कर रहे हैं। 

गांव के प्राथमिक स्कूलमें कुल जमा पांच से ज्यादा बच्चे नहीं है। बंदर, गुणी और जंगली सुअर उछल-उछल कर घरों के नजदीक तक आ गए हैं। नौले धीरे-धीरे सूखने लगे हैं। झाड़ियां शाम को इंसान भम्र पैदा कर देती हैं। पलायन का मंजर वाकई में विस्फोटक है। घोस्ट विलेज, की धारणा जल्द ही साकार होती दिख रही है। ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक है। पहाड़ी गांवों की ऐसी स्थिति आखिर क्यों हुई? घूम फिर कर फिर जवाब वहीं आता है। 

विकास के सही रोडमैप का अभाव,  नीति-नियंताओं और हुक्मरानों की निष्क्रियता, दूरदृष्टि और विजन की कमी।  हालांकि विजन की कमी कब तक रहेगी या कैसा विजन होना चाहिए इसका जवाब ना तो राजनेताओं के पास है ना ही पहाड़ को समझने का दावा करने वालों के पास।

एक करोड़ से ज्यादा आबादी वाले इस पहाड़ी सूबे में विकास की वाह्य कल्पना तो सफल है लेकिन बाहरी खोखली। पर्यटन स्थल जगमग है और दूर-दराज के पहाड़ी गांव अंधेरे के साथ अपनी किस्मत पलटने के लिए सिर पिट रहे हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो गांवों से 19 फीसदी से ज्यादा और शहरों से 9 फीसदी से ज्यादा पलायन हो चुका है। 

गैर-सरकारी आंकड़ों में यह और भी चौंकाने वाला है। 13 में से 11 जिले पलायन की चपेट में है। सूबे में महिला लिंगानुपात और महिला साक्षरता दर दोनों कम है। पिछले 14-15  सालों में गांवों से 5.1 फीसदी से भी ज्यादा आबादी घटी है। ऐसे में सवाल उठता है कि पहाड़ को किस तरह के नेतृत्व की आवश्यकता है?

(जारी  )

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