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कोरोना काल: घरों के भीतर व घरों के बाहर के लोग

ललित फुलारा जब मैं यह लिख रहा हूं..  जुलाई बीतने वाली है। फुटपाथ, सड़कें, गली-मोहल्ले कोरोना से निर्भय हैं! जीवन की गतिशीलता निर्बाध चल रही है। लोगों के चेहरों पर  मास्क  ज़रूर हैं, पर भीतर का डर धीरे-धीरे कम होने लगा है। रोज़मर्रा के कामकाज़ पर लौटे व्यक्तियों ने आशावादी रवैये से विषाणु के भय को भीतर से परास्त कर दिया है। घर के अंदर बैठे व्यक्तियों की चिंता ज्यादा है, बाहर निकलने वाले जनों ने सारी चीजें नियति पर छोड़ दी हैं।  वैसे ही जैसे असहाय, अगले पल की चिंता, दु:ख, भय और परेशानी ईश्वर पर छोड़ देता है।  हम भारतीयों की सबसे बड़ी ख़ासियत है कि जब हम चीजों को ईश्वरीय सत्ता पर छोड़ देते हैं, तो निराशा के पलों में भी हमारे भीतर जबरदस्त आशा व उत्साह पैदा हो जाता है, जो अवसाद, तनाव और उलझनों से झट से बाहर धकेल देता है। मजदूरों, फैक्टियों में काम करने वाले कामगारों, रेहड़ी-पटरी लगाकर गुजारा करने वाले फल, सब्ज़ी, खानपान विक्रेताओं व साफ-सफाई कर्मचारियों के साथ ही आजीविका के लिए बाहर निकलने वाले निम्न मध्यवर्गीय व मध्यवर्गीय परिवारों के नौकरी- पेशा लोगों ने अब मन को पक्का कर लिया है।  भाग्यव