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मई 9, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

एक लेखक की व्यथा और उसके लिए सलाह

कल एक होनहार और उभरते हुए लेखक से बातचीत हो रही थी। उदय प्रकाश और प्रभात रंजन की चर्चित/नीचतापूर्ण लड़ाई पर मैंने कुछ लिखा, तो उसने संपर्क किया। शायद उसे मेरे लेखक होने का भ्रम रहा हो। उसकी बातों ने मुझे सोचने पर मजबूर किया। उसने कहा, 'मैं लिखने के लिए ही जी रहा हूं पर मेरे लिखे को कोई तवज्जो नहीं देता क्योंकि मुझे नहीं पता किसी के गैंग में कैसे शामिल हुआ जाए। कई पत्रिकाओं को कहानी भेज चूका हूं। एक उपन्यास का पूरा ड्राफ्ट एक बड़े प्रकाशक के यहां पड़ा हुआ है।  ललित फुलारा देश का जाना- माना प्रकाशक। ऐसा प्रकाशक जिसके कर्ता-धर्ता ने अपने क्षेत्र/राज्य के गांव-गली से खोज-खोजकर लोगों को लेखक बना दिया। एक जानी मानी पत्रिका से पहले मेल आया कि आपकी कहानी छाप रहे हैं और फिर नहीं छपी! जब मैंने फोन किया तो मुझे औसत करार दिया गया। इससे पहले तक मुझसे आग्रह किया गया था कि किसी दूसरी पत्रिका में वो कहानी न भेजें, क्योंकि उसे हम छापेंगे। जब दूसरी पत्रिका को भेजा और उसके संपादक को फोन किया तो वो बोले 'आपकी ये कहानी तो अमूक पत्रिका में आ रही थी। आपने पहले उसे ही चुना फिर अब हमें क्यों दे