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हमारे आस-पास की झुर्रियां और झुकी कमर आशा साहनी और हम ऋतुराज हैं

बुढ़ापे की तन्हाई, एकाकीपन, घुटन, तड़प जवानी कहां समझ पाती है? वो भाग रही है, दौड़ रही है, उसकी अलग दुनिया है, मिजाज अलग है... उसे पाना है, कमाना है, बेहतर जीवन बनाना है. चाहे भावनाएं/ संवेदनाएं/कल्पना, रचनात्मकता व श्रम कुछ भी क्यों ना बिक जाए! हैरान होने की क्या बात है? हम सब ये ही तो कर रहे हैं. तभी हमारे पास सबकुछ होते हुए भी और कुछ ना होते हुए भी अपनों के लिए वक्त नहीं.. और अपने अगर बुढ़ें हो गए हैं तो बिल् कुल भी नहीं...। किसको दोष दें, जवानी या बुढ़ापा, शहर या गांव चलो सारा दोष बाजारवाद के मत्थे मढ़ देते हैं. कह सकते हैं कि हमारी इस जीवनशैली के पीछे उसका हाथ है. उसी की बदौलत हम कोल्हू के बैल बन गए हैं. उसने हमारे वक्त को अपना गुलाम बनाकर रख दिया है. हमने तीन मंजिला मकान खड़ा किया और तीनों में अलग-अलग सिमट कर रह गए हैं. मां-बाप, दादा-दादी की दुनिया अलग, भाई और बहनों की अलग. दुनिया की नजरों में मकान की नींव एक है, पर दिलों की दूरियों को हमसे बेहतर कौन जानता है? अक्सर किसी घटना के बाद हम कहते हैं, बुढ़ावा तनाव में है. बुढ़ापा खतरे में है. बुढ़ापे के लिए जवानी पर वक्त नही

प्रधानमंत्री जी. मेरा बेटा आपका घोर विरोधी बनता जा रहा है

श्रीमान नरेंद्र मोदी जी नमस्कार          आप भारतीय जनमानस के 'प्रधान सेवक' हैं. सेवा करना आपका कर्तव्य है. तीन सालों से आप देश सेवा में तल्लीन हैं. नोटबंदी और जीएसटी आपकी ख्याति युग-युगांतर तक अमर रखेगी. दुनियाभर के कई देश, आपकी चरणों की रज वंदना  करते रहेंगे. विश्व के सबसे शक्तिशाली मुल्क अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप, आपके दोस्त हैं. ओबामा से आपकी इतनी गहरी आत्मीयता है कि वो अक्सर आपको फोन करते रहते हैं. प्रधानमंत्री जी. मैं आपका प्रशंसक हूं- पर 'भक्त' कहलाया जाता हूं. जब आप सत्ता में आए थे, मेरी कई शामें आपकी तारीफों के पुल बांधने में गुजरी. मैं आपका मुफ्त प्रचारक था. गली-मुहल्ले, दूध की डेयरी,चाय की दुकान और ऑफिस- हर जगह, मैं आपका 'मुखपत्र' बना घूमता था. मैंने अपने कई अजीज लोगों से सिर्फ इसलिए नाता तोड़ दिया क्योंकि, मैं उनके मुख से आपके विरोध में एक शब्द, भी नहीं सुन सकता था. एक बार टीवी में आपकी पत्नी के ऊपर एक कार्यक्रम देखकर जब मेरी  पत्नी ने आपके पतित्व पर सवाल उठाया, तो मेरा हाथ उठते-उठते रह गया और गुस्सा टीवी के स्क्रीन पर उतरा. उसके बाद मैंने

ढलती शाम की सबा और तुम

‘अधूरे होने की भी एक कहानी होती है और उस कहानी को मैं सुनना चाहती हूं।‘ दो साल के अंतराल के बाद जब कोई अचानक उन स्मृतियों को सुनाने के लिए कहे, जो आपके साथ-साथ चल रही होती हैं तो एक बार ये सोचने के लिए, की कहां से शुरू किया जाय, आंखों का बंद होना जरूरी है। आंखों के बंद होते ही कई चित्र बनते और बिगड़ते हैं, यादें घुमड़ती हैं और जब हम शुरु होते हैं तो कहां तक निष्पक्ष होते हैं पता नहीं। मैं अबतक दृश्यों के साथ प्रैक्टिस कर चुका हूं। गालों को तीन-चार बार मसलने। उंगलियों को पुतलियों पर कई दफा फेरने के बाद एक बार उसकी तरफ देखकर- मैं राब्ता करता हूं उससे उन तमाम यादों को लेकर जिन्हें भूलाने का ख्याल दो साल से मैं अपने जेहन में पाले हुए हूं। शाम की ढलती सबा उसकी जुल्फों को मेरे गालों तक ला रही हैं। उसकी खिलखिलाती हंसी, अचानक उभरे उदासी के गंभीर भाव और बच्चों-सी जिद्द मेरे मन के कोने में चुप्पी साध चुकी तन्हाई को गुम-सी कर देती है। सच होते हुए भी एक ख्वाब झूठा-सा भम्र लग रहा है। क्योंकि उसे पहली दफा देखते ही कुछ था जो मेरी नजरों में बस गया था और इस वक्त वो मेरे साथ बैठी थी- इस बात से अंज

मैं रोज बदल रहा हूं

कहीं दूर एक कुटिया हो... उसमें मैं रहूं। बेफ्रिक, बेख्याल ना आज की घबराहट। ना कल का डर झोंके संग बहू किनारा पे रुक जाऊं.. फुटपाथ पर सोऊं घंटों बैठू रातभर जागू जीभर घूमूं-----1 सच कहूं ये जो सजी हुई हैं अलमारी में हर महीने खरीदी किताबें इन्हें पढ़ना चाहता हूं और अगले ही पल उस घेरे में घिर जाता हूं जिस घेरे में हूं...2 मेरी संवेदनाएं मर रही हैं खोखला हो रहा हूं स्वभाव बदल रहा है कुछ भी नहीं भाता झूठा लगता है सबकुछ.....3 कविताएं सुकूं नहीं देती कहानियां रोमांच पैदा नहीं करती सब फीका है पलभर के लिए आकर्षित होता हूं अगले ही पल मिथ्या-सा......4 अजान की आवाज कोफ्त पैदा करती है कीर्तन कानों में गर्म तेल उढेल देते हैं लोग झूठे लगते हैं बौद्धिकता दिखावटी ज्ञान विस्फोटक भ्रम राजनीति बकवास साहित्य पुलिंदा अख़बार रद्दी...5 मैंने कुछ नहीं देखा फिर भी सबकुछ मकड़ी का जाल लगता है हर पल। हर रोज। मुझे लगता है मैं अवसाद ग्रसित हो रहा हूं...6 1,2, 3,4, 5 और 6 की भांती रोज बदल रहा हूं (9 मार्च 2017 को लिखी कविता)

मुझे स्ट्रीट प्ले देखना है पसंद: पीयूष मिश्रा

कला प्रेमियों के उत्सव में कलाकार ना हो तो कला किसके लिए ? और कलाकार जब उत्सव में कला से दूरी बनाता दिखे या मंशा जाहिर करे तो ज़रूर उत्सव , कला प्रेमियों के लिए कम , कला से जुड़े मठाधीशों के व्यवसायिक हितों के लिए ज़्यादा दिखने लगता है। रंगमंच की पुरानी शामों में कुछ वामपंथी कलाकार दोस्तों के मुंह से सुनता था- ‘ कला , कला के लिए होनी चाहिए ?’ पता नहीं आज वो इस बात से कितना इत्तफाक रखते होंगे। इसके पीछे के दर्शन पर कितनी बहसें होती होंगी ? पर कला व्यवसाय से इतर कहां हैं ? जो है गुमनामी या कलाकार की संतुष्टि में है। अर्से बाद भारगंम के बहाने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के प्रांगण में कदम रखा तो पीयूष मिश्रा फक्कड़ अंदाज में मंडली जमाए बैठे मिले। मौका अच्छा था। कुछ सवाल- जवाब और लगे हाथ इंटरव्यू का ख्याल मन में कौंध आया। कैमरे की व्यवस्था संजय ने संभाली।   मैं पीयूष के बगल में जा बैठा। वो फक्कड़ लहजे में बोले- ‘ ये इंटरव्यू- इंटरव्यू नहीं देना। ’ पर मैं तब तक बगल में जा बैठा था। संजय और अजीत ने अपने मोर्चा संभाल लिया था। सवाल- नाटक को बढ़ावा देने के लिए क्या किया जा सकता है ? पी

नवरोज़

मेरा सच जब मुझे स्वीकार है तो पर्दा कैसा ? शर्म किसकी। किसके कानों की परवाह ? किसकी आंखों का डर ? किसकी सोच पर घबराहट। तुम क्या सोचोगे, क्या समझोगे, क्या ख्याल बुनोगे। मेरे हाड़-मांस को कोई फर्क नहीं पड़ता। बीस की थी जब पहली दफा उन हाथों ने स्तन छुए। उस अहसास को ना बयां कर सकती ना ही अलग। शरमा गई थी। उल्टे पांव घर लौट आई। चेहरे पर बेचैनी और दिल में घबराहट के बाद भी खुश थी। रास्ते भर उसकी बाहों में ताउम्र समाए रहने का ख्वाब बुन रही थी। उन कोमल और मुलायम हाथों के बारे में सोच रही थी जो अचानक रुक गए थे। घर की बालकनी में खड़ी, ढलती सांझ को देख अंदर के राग गा उठे थे। बादलों के संग बनती-बिगड़ती परछाई की तरह, उदासी और खुशी का भाव लिए मटकती फिर रही थी। होंठो के फिसलते  ही तन उठने वाले गालों का संभालती रही। सतर्क थी कहीं घरवालों के अंदर मेरे चेहरे की खुशी, शक का बीज ना बो दे। सारी रात गुदगुदी, झुरझुरी की चाह में करवट बदलती रही। दोनों हाथों को स्तनों पर रख किस पहर पलकें एक दूसरे में आत्मसात हुई , अनभिज्ञन। उसके बाद ना वो कभी करीब आया , ना मेरी हिम्मत हुई। तीस साल बीत गए। अब भी