सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

ढलती शाम की सबा और तुम

‘अधूरे होने की भी एक कहानी होती है और उस कहानी को मैं सुनना चाहती हूं।‘ दो साल के अंतराल के बाद जब कोई अचानक उन स्मृतियों को सुनाने के लिए कहे, जो आपके साथ-साथ चल रही होती हैं तो एक बार ये सोचने के लिए, की कहां से शुरू किया जाय, आंखों का बंद होना जरूरी है। आंखों के बंद होते ही कई चित्र बनते और बिगड़ते हैं, यादें घुमड़ती हैं और जब हम शुरु होते हैं तो कहां तक निष्पक्ष होते हैं पता नहीं। मैं अबतक दृश्यों के साथ प्रैक्टिस कर चुका हूं। गालों को तीन-चार बार मसलने। उंगलियों को पुतलियों पर कई दफा फेरने के बाद एक बार उसकी तरफ देखकर- मैं राब्ता करता हूं उससे उन तमाम यादों को लेकर जिन्हें भूलाने का ख्याल दो साल से मैं अपने जेहन में पाले हुए हूं।

शाम की ढलती सबा उसकी जुल्फों को मेरे गालों तक ला रही हैं। उसकी खिलखिलाती हंसी, अचानक उभरे उदासी के गंभीर भाव और बच्चों-सी जिद्द मेरे मन के कोने में चुप्पी साध चुकी तन्हाई को गुम-सी कर देती है। सच होते हुए भी एक ख्वाब झूठा-सा भम्र लग रहा है। क्योंकि उसे पहली दफा देखते ही कुछ था जो मेरी नजरों में
बस गया था और इस वक्त वो मेरे साथ बैठी थी- इस बात से अंजान कि हमारी पहली मुलाकात कब हुई थी। उसे सुनना था और मुझे यादों के कुहासे से निकलकर उन पलो को हमेशा के लिए संजोना था जो चल रहा था। पता नहीं जो कह पाया या सुना पाया वो कितना निष्पक्ष था लेकिन छुपाया कुछ भी नहीं था। जानते हुए भी पहली मुलाकात में खुली किताब की तरह पन्ने उलेट देना व्यक्तिगत तौर पर कई बार नफा-नुकसान का सबब बन जाता है, मैंने तमाम पन्ने पलट दिए क्योंकि स्वभाव ही पत्ते पर गिरी ओंस की बूंदों की तरह है जो ज्यादा वक्त तक वैसी नहीं रह पाती, जैसी गिरी होती हैं, और फिर बिखर जाती हैं।

मेरी जुस्तजू थी कि उसे बता दूं, वो ढलती शाम कब की थी जब वो चुपके से मेरे दिल के कोने पर आ बैठी थी बिना इस बात की परवाह के कि..आगे क्या होगा। उसके बाद एकाध बार वो जब भी दिखी मेरे गुलशन में बाद-ए-नौबहार की तरह की तरह महक उठी। और आज मेरी ग़मगुसार बनकर मुझसे मेरी बीती जिंदगी के पन्ने पलटवा रही थी।
दिसंबर 2016# की डायरी

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

कॉफी टेबल पर नहीं रची गई है अर्बन नक्सल थ्योरी: कमलेश कमल

कमलेश कमल की पैदाइश बिहार के पूर्णिया जिले की है. उनका उपन्यास ‘ऑपरेशन बस्तर: प्रेम और जंग’ चर्चित रहा है और कई भाषाओं में अनुवादित भी हुआ है. यह नॉवेल यश पब्लिकेशंस से प्रकाशित हुआ है. हाल ही में उनकी भाषा विज्ञान पर नवीन पुस्तक ‘भाषा संशय- सोधन’ भी आई है. इस सीरीज में उनसे उनकी किताबों और रचना प्रक्रिया के बारे में बातचीत की गई है. मेरी संवेदनाओं और मनोजगत का हिस्सा है बस्तर कमलेश कमल का उपन्यास ‘ऑपरेशन बस्तर: प्रेम और जंग’ (Operation Bastar Prem Aur Jung) का कथानक नक्सलवाद पर आधारित है. उनका कहना है कि बस्तर कहीं न कहीं मेरी संवेदनाओं, भाव और मनोजगत का हिस्सा है. मैं ढ़ाई साल बस्तर के कोंडागांव (KONDAGAON BASTAR) में तैनात रहा. पूरा इलाका नक्सल प्रभावित है. नक्सलवाद को न सिर्फ मैंने समझा बल्कि बस्तर की वेदना, पूरी आबोहवा को जाना एवं अनुभूत किया है. एक लेखक को अनुभूत विषय पर ही लिखना चाहिए. लेखक का लेखन किसी ऐसे विषय पर इसलिए नहीं होना चाहिए कि वो सब्जेक्ट चर्चित है. बल्कि वह विषय उसके अनुभव और भाव जगत का हिस्सा भी होना चाहिए. नक्सल केंद्रित जितने भी उपन्यास हैं, उनमें या तो सुरक्षाब

रात का तीसरा पहर- मैं और कुंवर चंद अंधेरे गधेरे को पार करते हुए

मैं कुंवर चंद जी के साथ रात के तीसरे पहर में सुनसान घाटी से आ रहा था। यह पहर पूरी तरह से तामसिक होता है। कभी भूत लगा हो, तो याद कर लें रात्रि 12 से 3 बजे का वक्त तो नहीं! अचानक कुंवर चंद जी मुझसे बोले 'अगर ऐसा लगे कि पीछे से को¬ई आवाज दे रहा है, तो मुड़ना नहीं। रोए, तो देखना नहीं। छल पर भरोसा मत करना, सीधे बढ़ना.. मन डरे, कुछ अहसास हो, तो हनुमान चालिसा स्मरण करो। मैं साथ हूं। आसपास बस घाटियां थीं। झाड़ झंखाड़। गधेरे। ऊपर जंगल और नीचे नदी जिसकी आवाज भी थम चुकी थी। अंधेरा घना। मैं आगे था और कुंवर चंद जी मेरे पीछे हाथ में मसाल लिए चल रहे थे। अचानक बच्चा रोया और छण-छण शुरू हो गई। मैंने पीछे देखना चाहा, तो उन्होंने गर्दन आगे करते हुए 'बस आगे देखो। चलते रहो। छल रहा है। भ्रमित मत होना। कुछ भी दिखे यकीन मत करना। जो दिख रहा है, वो है नहीं और जो है, वह अपनी माया रच रहा है।' बोला ही था कि नीचे खेतों की तरफ ऐसा लगा दो भैंस निकली हैं। रोने की आवाज और तेज हो गई। पीछे मुड़कर मैं कुंवर चंद जी को फिर बताना चाह रहा था कि क्या हो रहा है। उन्होंने मेरी गर्दन आगे करते हुए  जोर से कहा 'भ्रमि

महिला दोस्त के सामने अश्लीलों की तरह पेश आए, बिग बाजार स्टोर में उड़ाते रहे हमारे सम्मान की धज्जियां

मंगलवार शाम जीआईपी मॉल (नोएडा सेक्टर-18) के 'बिग बाजार' स्टोर में, मेरे व मेरी फ्रेंड के साथ बदसलूकी हुई। कपड़े के 'प्राइस टैग' के संबंध में। दरअसल जो प्राइस टैग लगा था कैश काउंटर पर उससे ज्यादा कीमत मांगी जा रही  थी जिसपर मैं सवाल कर रहा था। मैनेजर मुझे दूसरे रूम में ले गया जहां  करीब 10-12 लोगों ने ज़लील किया। मेरे साथ मेरी महिला मित्र भी मौजूद  थी। बावजूद वो अश्लील फब्तियां कसते रहे। अपमानित किए और  धमकाया। लगातार दबाव बनाते रहे- हम यह कबूल कर लें 'प्राइस टैग' हमने बदला है। उन सभी का व्यवहार गुंडों जैसा था। हमारी छवि की धज्जियां उड़ाते रहे। वो हंसें जा रहे थे। एक के बाद एक आता और हमें चोर ठहराते हुए-फब्तियां कसता। उंगली दिखाता और घर नहीं जाने देने की धमकी देता। हमने वीडियो फुटेज देखने की मांग की तो हमें गाली दी गई और बोला गया- 'तेरा बाप देखेगा पांच घटें बैठकर वीडियो फुटेज।' वो लोग इतने अंसवेदनशील थे कि मेरी महिला मित्र का भी लिहाज नहीं किया। यह वाकया ऐसे रेपूटेटिड स्टोर में किया गया जिसे सरकार ने करेंसी पेमेंट जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी के लिए चुना ह