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जीवन आसान है, हम इसे इतना कठिन क्यों बनाते हैं

'जिंदगी कैसी चल रही है?'  'बस कट रही है'।  ये दो ऐसी लाइने हैं जो अक्सर हमारी जुबान पर होती हैं। हम जीवन को जीते नहीं 'काटते' हैं, जैसे वो खेत की घास हो। 'काटने' से ही लगता है कि हम जीवन के प्रति कितने निराश और हताश हो चुके हैं, ऊब चुके हैं। क्या कभी इस सवाल का जवाब हम इस तरहे देंगे। 'बहुत बढ़िया चल रही है। आनंद आ रहा है। मौज हो रही है।' जिस दिन ऐसा बोलने लगेंगे 'जीवन सरल' होता चला जाएगा। ये जो काटना शब्द है अक्सर हमारा वास्ता इससे जवानी में पड़ता है। बचपन में हम जीवन को काटते नहीं बल्कि जीते हैं, मौजू की तरह। जैसे-जैसे बढ़े होते जाते हैं हमारे पास अपने लिए वक्त कम पड़ता जाता है और हम जीवन को काटने लगते हैं। इसलिए, जब जॉन जैडी कहते हैं- 'जीवन आसान है, हम इसे इतना कठिन क्यों बनाते हैं' तो यह बात हमें अंदर तक छू जाती है और इसपर सोचने को विवश हो जाते हैं। ...जैडी की तरह आप में से बहुतों को भी लगता होगा- 'जब मैं बच्चा था, सबकुछ आसान और मजेदार था।' क्यों था जब तक इसका जवाब खुद नहीं खोजेंगे सबकुछ था में ही चलता रहेगा। बहरह

नीड़ नहीं, नारी हूं मैं

नीड़ नहीं, नारी हूं मैं स्वतंत्र नहीं! पिंजर में हूं मैं कितने युग बदले? आज भी शासित और पति की अनुगामिनी हूं मैं अर्धांगनी हूं मैं मेरा अर्धांग नहीं अनुगमनीय नहीं नर के बाद ही पुकारी जाने वाली नारी हूं मैं।।       चूल्हे, चौखे से निकली        घूंघट में आंगन में बैठी        तो परिवार की प्यारी हूं मैं        मैंने नजरे मिलाई घूंघट हटा सड़कों पर निकली तो निर्लज्ज पुकारी हूं मैं नीड़ नहीं नारी हूं, मैं।। अभिशप्त है क्या जीवन? मैं ही पिसती हूं चक्की के दो पाटों में शैशव में, कैशौर्य में उसके बाद तो नियती बन जाती है कहां हूं स्वतंत्र मैं कब थी स्वतंत्र मैं बंधन और सामाजिक रीति-रिवाज क्या मेरी ही देह पर लागू होते हैं? मेरा प्रश्न है मैं स्त्री हूं, क्या इसलिए? मेरी भागीदारी है मेरी साझेदारी है मेरा पूरा सहयोग है घर में, परिवार में, देश में फिर चुड़ैल, कुलटा, कुलक्षणी, कलंकनी शब्द मेरे लिए ही क्यों? मेरी ही कोख से जन्म लेने वाली की नजरों में मैं ही द्वीतिय श्रेणी की! मां, मैं ही हूं बलात्कृत भी।।  ललित फुलारा साल 2011 में हमवतन वीकली न्यूज पेपर

बूंद उनकी याद दिलाती

बरसात का वो पल    भींगी जुल्फें   सरसराती हवा उन पर    मेघों की गर्जन    सहमे नयन कोयल-सा छटपटाता तन    बालों से ढक जाता दूधिया गालों का रंग निखर जाता अंग-अंग यौवन बन जाता आंखों का सप्तरंग।।                 नीला आसमां        काले-काले बादल        पत्तों पर गिरी बूंदें दिखती हैं कितनी सुंदर धूप की चादर फैल जाती पेड़-पौधों पर छट जाती पहाड़ों की धुंध   इधर-उधर।। नीड़ में चिड़ियां   चहकने लगती चूं-चूं कर चुंगती दाने उड़-उड़कर गोरिया सड़क पर घास की डलिया सिर पर रखकर गिली मिट्टी पर पदचिन्ह छोड़कर चल देती हैं वो सड़क से ऊपर आंख टिकी रहती दूर धार में पहुंचने तक       उनपर मेह फिर रिमझिमाती पदचिन्हों को भर जाती बूंद उनकी याद दिलाती।।    ललित फुलारा   दिसंबर 2011 में लिखी और फटे चिथड़ों से निकालकर आज टाइप की गई एक कविता  

तुम हो, तो मैं हूं

तुम हो, तो मैं हूं तुम्हारा प्यार मेरे सपनों का साकार होना है तुम्हारी हंसी-खुशी मेरे सारे गमों को भूल जाना है तुम्हें देखना, तुमसे बातें करना साथ बैठना मेरा, मेरा होना है।। तुम्हें पता है? मेरे लिए क्या हो तुम? सांस हो चेतना हो बंजर भूमि की खेती हो मरुस्थल का जल हो ईद का चांद और दिवाली का दीपक हो तुम बस इतना सुनो तुम हो, तो मैं हूं।।       ललित फुलारा

आंख और आइसक्रीम से मुखिया का रिश्ता

लिट्टी-चौखे ने ही पहाड़ और बिहार को जोड़ने का काम किया था। बाकि तो धुर विरोध था। सब्जियां लाने, आटा पिसवाने और गैस भरवाने में आगे रहने के चलते उसे ‘मुखिया’ की उपाधि मिली। बाद, सबकी जुबान पर यह नाम चढ़ता चला गया। उसकी खासियत थी हद से ज्यादा धैर्यवान रहना। पूरे दो साल वह इसी सिद्धांत के साथ नाक की सीध पर चलता रहा। बस एक बार कंट्रोवर्सी तब पैदा हुई जब उसने वृंदावन में कृष्ण को गरियाया और जोर-जोर से जय श्रीराम के नारे लगाए। बाद में साथ गए लोगों ने खुलासा किया- ‘चप्पल नई और महंगी थी इसलिए धैर्य लूज पड़ा ।’ हालांकि, जब भी इस बात का जिक्र आया वह ठेठ लहजे में कहता रहा  ‘कृष्ण तो था ही बचपन से चोर। अगर चोर कह दिया तो क्या गलत किया?’ उसकी इस बात का जवाब किसी के पास नहीं था क्योंकि यह आस्था का विषय था। पहले मुलाकात के बाद सबने कहा वो दिखता जरूर अजीब है लेकिन समझ में आता है। फिर कहा गया वो दिखता सही है, लेकिन अजीब है, समझ में कम आता है। इसके बाद से लोक में विख्यात हो गया कि उसकी आंखों में साक्षात खजुराहो के दर्शन होते हैं। बाद में किसी तरह सेटलमेंट हुआ, एक साल बाद आंखों वाली बात दब पाई। और