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जनवरी 21, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

नवरोज़

मेरा सच जब मुझे स्वीकार है तो पर्दा कैसा ? शर्म किसकी। किसके कानों की परवाह ? किसकी आंखों का डर ? किसकी सोच पर घबराहट। तुम क्या सोचोगे, क्या समझोगे, क्या ख्याल बुनोगे। मेरे हाड़-मांस को कोई फर्क नहीं पड़ता। बीस की थी जब पहली दफा उन हाथों ने स्तन छुए। उस अहसास को ना बयां कर सकती ना ही अलग। शरमा गई थी। उल्टे पांव घर लौट आई। चेहरे पर बेचैनी और दिल में घबराहट के बाद भी खुश थी। रास्ते भर उसकी बाहों में ताउम्र समाए रहने का ख्वाब बुन रही थी। उन कोमल और मुलायम हाथों के बारे में सोच रही थी जो अचानक रुक गए थे। घर की बालकनी में खड़ी, ढलती सांझ को देख अंदर के राग गा उठे थे। बादलों के संग बनती-बिगड़ती परछाई की तरह, उदासी और खुशी का भाव लिए मटकती फिर रही थी। होंठो के फिसलते  ही तन उठने वाले गालों का संभालती रही। सतर्क थी कहीं घरवालों के अंदर मेरे चेहरे की खुशी, शक का बीज ना बो दे। सारी रात गुदगुदी, झुरझुरी की चाह में करवट बदलती रही। दोनों हाथों को स्तनों पर रख किस पहर पलकें एक दूसरे में आत्मसात हुई , अनभिज्ञन। उसके बाद ना वो कभी करीब आया , ना मेरी हिम्मत हुई। तीस साल बीत गए। अब भी