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नवरोज़

मेरा सच जब मुझे स्वीकार है तो पर्दा कैसा? शर्म किसकी। किसके कानों की परवाह? किसकी आंखों का डर? किसकी सोच पर घबराहट। तुम क्या सोचोगे, क्या समझोगे, क्या ख्याल बुनोगे। मेरे हाड़-मांस को कोई फर्क नहीं पड़ता। बीस की थी जब पहली दफा उन हाथों ने स्तन छुए। उस अहसास को ना बयां कर सकती ना ही अलग। शरमा गई थी। उल्टे पांव घर लौट आई। चेहरे पर बेचैनी और दिल में घबराहट के बाद भी खुश थी। रास्ते भर उसकी बाहों में ताउम्र समाए रहने का ख्वाब बुन रही थी। उन कोमल और मुलायम हाथों के बारे में सोच रही थी जो अचानक रुक गए थे। घर की बालकनी में खड़ी, ढलती सांझ को देख अंदर के राग गा उठे थे।

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बादलों के संग बनती-बिगड़ती परछाई की तरह, उदासी और खुशी का भाव लिए मटकती फिर रही थी। होंठो के फिसलते 
ही तन उठने वाले गालों का संभालती रही। सतर्क थी कहीं घरवालों के अंदर मेरे चेहरे की खुशी, शक का बीज ना बो दे। सारी रात गुदगुदी, झुरझुरी की चाह में करवट बदलती रही। दोनों हाथों को स्तनों पर रख किस पहर पलकें एक दूसरे में आत्मसात हुई, अनभिज्ञन। उसके बाद ना वो कभी करीब आया, ना मेरी हिम्मत हुई। तीस साल बीत गए। अब भी वो स्पर्श यहां इस दिल के करीब है। अधेड़ उम्र में उन हाथों के सपने आते हैं। आगे बढ़ते हैं और रुक जाते हैं। अब सोचती हूं, दिल में सजाई चाहत ताउम्र सपना बन क्यों रह जाती है। मैं ही क्यों करीब नहीं गई। हाथ थाम क्यों नहीं बोला- तुम ही तो हो, जो रोज पलकों पर नींद बन उतरता है। और ओझल होते ही, उदासी घेर लेती है। तुम मेरे नई पीढ़ी के शहरी पोते हो। बुढ़ी दादा और ज्यादा बोल्ड हो इससे पहले थोड़ा चहलकदमी कर आओ,ताकि सस्पेंस भी बना रहे और दादी को पुराने ख्वाबों से किरदार खिंचने का मौका भी मिल जाए।

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