सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

फ़रवरी 26, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मनोज कुमार झा की ग़जलें

मनोज कुमार झा की ग़जलें पांव देखे पांवों के निशां देखे कैसे-कैसे हमने भी जहां देखे। - मनोज कुमार झा सांझ घिर आई तो तेरा संवरना देखा रात की बांहों में ये किसका मचलना देखा। देखने की हसरत जो रह गई हसरत ही जागते हुए शायद ये मैंने कोई सपना देखा। - मनोज कुमार झा मन है मौसम पतझड़ की तरह कहीं धूल में गुबार के भटकना है। - मनोज कुमार झा यूं ही भटकने में बीती है ये तमाम रात यहां-वहां कभी, कभी क्या तेरे पास। - मनोज कुमार झा जिन्हें हम याद करते हैं कभी वो याद क्या करते ये फ़ितरत है तुम्हारी जो फ़िर भी जां हम देते हैं। - मनोज कुमार झा ये कैसा दर्द का समंदर था आग़ जलती धुआं-धुआं-सी थी। घेर कर हर तरफ़ से क्या कहा कहानी ये कितनी बेबयां-सी थी। - मनोज कुमार झा मौन ही चित्रलिखित है रात की स्याही में तुम करो बात ना बात वो बेमानी है। - मनोज कुमार झा नज़रें मिलीं तो फ़िर बेक़रार क्यों हुईं क्या खेल ऐसा हुआ दो-चार जो हुईं। - मनोज कुमार झा जैसे नदी जलती हुई फ़िर समा गई पहाड़ों में अब समंदर सोखने की उनकी हसरत लाजवाब। - मनोज कुमार झा उनसे मिलना जो हुआ होता दिल ये आईना ज