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मनोज कुमार झा की ग़जलें

मनोज कुमार झा की ग़जलें
पांव देखे पांवों के निशां देखे
कैसे-कैसे हमने भी जहां देखे।
- मनोज कुमार झा

सांझ घिर आई तो तेरा संवरना देखा
रात की बांहों में ये किसका मचलना देखा।
देखने की हसरत जो रह गई हसरत ही
जागते हुए शायद ये मैंने कोई सपना देखा।
- मनोज कुमार झा

मन है मौसम पतझड़ की तरह
कहीं धूल में गुबार के भटकना है।
- मनोज कुमार झा

यूं ही भटकने में बीती है ये तमाम रात
यहां-वहां कभी, कभी क्या तेरे पास।
- मनोज कुमार झा

जिन्हें हम याद करते हैं कभी वो याद क्या करते
ये फ़ितरत है तुम्हारी जो फ़िर भी जां हम देते हैं।
- मनोज कुमार झा

ये कैसा दर्द का समंदर था
आग़ जलती धुआं-धुआं-सी थी।
घेर कर हर तरफ़ से क्या कहा
कहानी ये कितनी बेबयां-सी थी।
- मनोज कुमार झा

मौन ही चित्रलिखित है रात की स्याही में
तुम करो बात ना बात वो बेमानी है।
- मनोज कुमार झा

नज़रें मिलीं तो फ़िर बेक़रार क्यों हुईं
क्या खेल ऐसा हुआ दो-चार जो हुईं।
- मनोज कुमार झा

जैसे नदी जलती हुई फ़िर समा गई पहाड़ों में
अब समंदर सोखने की उनकी हसरत लाजवाब।
- मनोज कुमार झा

उनसे मिलना जो हुआ होता
दिल ये आईना जो हुआ होता।
हम यूं भी मर गए ना होते
जो तुमने मुलाहिज़ा किया होता।
राज़ दफ़्न हैं जो ये सीने में
काश राज़-ए-उल्फ़त ना हुआ होता।
तेरी यादों की ख़ुशबू ले के आई सबा
मैं इतना दीवाना भी ना हुआ होता।
- मनोज कुमार झा

रात झील-सी तेरी आंखों में देखेंगे
सहर होने तक जो भी हो देखेंगे।
- मनोज कुमार झा

काश तुमसे ना मिला होता
ये तमाशा भी ना हुआ होता।
यूं भी क्या टूटा-बिखरा होता
तेरे होने में ही जो हुआ होता।
छू के मुझको यूं निकल ना जाते
ये क़िस्सा क्यूं बयां हुआ होता।
कौन जीता नहीं मर के भी भला
लबे जाम से जो ज़हर पिया होता।
- मनोज कुमार झा

ज़िक्र सिर्फ़ दवा का है बीमार का नहीं
ख़तरा क्या है, हुस्न तलबगार का नहीं।
- मनोज कुमार झा
मनोज कुमार झा की प्रवृत्ति छपास की नहीं है...बहुत निवेदन करने के बाद उनकी कुछ कविताएं और गजलों को हासिल कर पाया हूं। दैनिकभास्करडॉटकॉम, भोपाल में कॉपी एडिटर के पद पर कार्यरत हैं। हर रोज एक कविता या कुछ न कुछ किसी मुद्दे पर लिखते हैं...लेकिन इतने सालों तक कविता प्रकाशित कराने का ख्याल उनके मन में नहीं आया...पूछने पर कहते हैं...

...'कविता प्रकाशित कराने का ख्याल कभी आया ही नहीं, बस लिखने का ही ख्याल आता है।'

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