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साल जाता है और स्मृतियों से जुड़ जाता है; 2021 का सवेरा कुछ और हो

हर साल जाता है और स्मृतियों से जुड़ जाता है। ये स्मृतियां अच्छी और बुरी दोनों होती हैं। 2020 के साथ भी ऐसा ही रहा। अच्छी कम और बुरी स्मृतियां ज्यादा रहीं। दु:ख/तक़लीफ़/मानसिक परेशानी/चिंता/व्यथा/कष्ट/विपत्ति/संकट/अवसाद/उदासी और घोर निराशा में बीता। शब्दकोश में जितने भी नकारात्मक एवं मनुष्य के दर्द को बताने वाले शब्द हैं, सारे ही इस साल के साथ जुड़े रहे। यह एक साल आने वाले सौ साल के बराबर दु:ख और तक़लीफ़ देकर गया। साथ ही मनुष्यता को यह सीखाकर भी गया कि प्रारंभिक काल से लेकर आधुनिक काल तक इंसान के लिए निज हित ही सर्वोपरी रहा और स्वहित की जगह अब तक हम अपने भीतर परहित का भाव पूर्ण रूप से नहीं भर पाये।  जिसने भरा उसने खाते-पीते, चलते और देखते ही इहलोक में ही मोक्ष की प्राप्ति कर ली। उसके भीतर अब कुछ नहीं भरा है। वह खाली है। यह सवाल भी छोड़ गया कि हमने अपनों को कितना पूछा? हम अपनों के साथ कितने खड़े रहे।  अपना है क्या? क्या ख़ुद के सिवाय इस दुनिया में कुछ अपना है!! इस साल के साथ डर, बदकिस्मती और भय इस क़दर जुड़ा हुआ है कि सुबह यह सब लिखते वक्त भी  में कई तरह के संशय से घिरा हुआ हूं। शरीर में

रात का तीसरा पहर- मैं और कुंवर चंद अंधेरे गधेरे को पार करते हुए

मैं कुंवर चंद जी के साथ रात के तीसरे पहर में सुनसान घाटी से आ रहा था। यह पहर पूरी तरह से तामसिक होता है। कभी भूत लगा हो, तो याद कर लें रात्रि 12 से 3 बजे का वक्त तो नहीं! अचानक कुंवर चंद जी मुझसे बोले 'अगर ऐसा लगे कि पीछे से को¬ई आवाज दे रहा है, तो मुड़ना नहीं। रोए, तो देखना नहीं। छल पर भरोसा मत करना, सीधे बढ़ना.. मन डरे, कुछ अहसास हो, तो हनुमान चालिसा स्मरण करो। मैं साथ हूं। आसपास बस घाटियां थीं। झाड़ झंखाड़। गधेरे। ऊपर जंगल और नीचे नदी जिसकी आवाज भी थम चुकी थी। अंधेरा घना। मैं आगे था और कुंवर चंद जी मेरे पीछे हाथ में मसाल लिए चल रहे थे। अचानक बच्चा रोया और छण-छण शुरू हो गई। मैंने पीछे देखना चाहा, तो उन्होंने गर्दन आगे करते हुए 'बस आगे देखो। चलते रहो। छल रहा है। भ्रमित मत होना। कुछ भी दिखे यकीन मत करना। जो दिख रहा है, वो है नहीं और जो है, वह अपनी माया रच रहा है।' बोला ही था कि नीचे खेतों की तरफ ऐसा लगा दो भैंस निकली हैं। रोने की आवाज और तेज हो गई। पीछे मुड़कर मैं कुंवर चंद जी को फिर बताना चाह रहा था कि क्या हो रहा है। उन्होंने मेरी गर्दन आगे करते हुए  जोर से कहा 'भ्रमि

काकड़ीघाट का वह वृक्ष जहां स्वामी विवेकानंद को हुई थी ज्ञान की प्राप्ति, ग्वेल ज्यू के घोड़े का किस्सा

(अल्मोड़ा-हल्द्वानी के रास्ते में पड़ने वाला काकड़ीघाट) यह काकड़ीघाट का वही पीपल वृक्ष है, जहां स्वामी विवेकानंद जी को 1890 में ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। असल वृक्ष 2014 में ही सूख गया था और उसकी जगह इसी स्थान पर दूसरा वृक्ष लगाया गया है, जिसे देखने के लिए मैं अपने एक साथी के साथ यहां पहुंचा था। काकड़ीघाट पहुंचते ही हमें चंदन सिंह जंतवाल मिले, जिन्होंने अपनी उम्र 74 साल बताई। वह ज्ञानवृक्ष से ठीक पहले पड़ने वाली चाय की दुकान के सामने खोली में बैठे हुए थे, जब हमने उनसे पूछा था कि विवेकानंद जी को जिस पेड़ के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी, वह कहां है? सामने ही चबूतरा था, जहां लोग ताश और कैरम खेल रहे थे। विशालकाय पाकड़ वृक्ष को देखते ही मेरा साथी झुंझलाया 'यह तो पाकड़ है... पीपल कहां है?' जंतवाल जी मुस्कराये और आगे-आगे चलते हुए हमें इस वृक्ष तक ले गए। तब तक मैंने ज्ञानवृक्ष का बोर्ड नहीं पढ़ा था और उनसे ही पूछ बैठा। यह तो हाल ही लगा हुआ वृक्ष लग रहा है, पुराना वाला कहां है? असल में ज्ञानवृक्ष को देखने की ही चाहत हमें यहां तक खींच लाई थी। वृक्ष को लेकर दिमाग में पहले से ही विशाल पीपल

पहाड़ की पहरू ईजा

फोटो साभार- युवा चित्रकार भास्कर भौर्याल ललित फुलारा असल मायने में पहाड़ की पहरू ईजा ही ठहरी। सदियों से ईजाओं ने ही पर्वतीय जनजीवन को संवारा व बचाया ठहरा। उनकी बदौलत ही शिखरों से घिरे हमारे गौं, पुरखों की स्मृतियों की याद लिए खंडहरों के बीच भी खड़े ठहरे। हमारी ईजाएं न होती, तो ये पहाड़ टूट जाते! सूनेपन, उदासी व उजाड़ के दु:ख से धराशायी हो जाते! दरक जाती घाटियां और महाप्रलय से पहले ही दूर पर्वतों की तहलटी पर बसे गौं; धरती की कोख में समा जाते। न यादें होती और न ही स्मृतियां! न गीत व कविताएं लिखी जातीं और न ही कहानियां बुनी जातीं। शुक्रिया कहो ...  अपनी ईजाओं को जिनकी बदौलत पहाड़ बसे रहे, बने रहे व बचे रहे।   बियावान में अग्नि धधकने के दु:ख के बाद भी पेड़-पौधे खुशी-खुशी लहलहाते रहे। लोक और संस्कृति बची रही। रीति-रिवाज और बोली का गुमान रहा। लोकगाथाओं की आस्था में सिर झुके और जागर की रौनक छाई। पहाड़ों का खालीपन भी ईजाओं के पदचाप, कमर की दाथुली, हाथ का कुटऊ, सिर की डलिया और आंचल के स्नेह से भरा रहा। हिमांतर पत्रिका में प्रकाशित जब हमारे बुबुओं की पीढ़ी ने पोथी लेकर धैली से बाहर कदम रखा और चौ

आंखन देखी: शनिवार, नारियल पानी और लॉकडाउन

ललित फुलारा श निवार का दिन। अगस्त की पहली तारीख़। यूपी में लॉकडाउन। नोएडा की सड़कों पर आवाजाही सामान्य दिनों की तरह। जगह-जगह बैरिकेड। कहीं पुलिसवाले और कहीं सिर्फ पुलिस के आने का डर। दफ़्तर में खाली कुर्सियां और कैबन। पिछले बीस दिनों से वो ही चेहरे जिनके होने का पहले से ही अंदाजा रहता है।  मुंह पर मास्क और भीतर से थोड़ी चिढ़ व झुंझलाहट।  मज़बूरी कुछ ऐसी, जो अपने वक्त के इतिहास के पन्नों में दर्ज, तो हो जाती है पर पन्नों के किताब बनने में वक्त लगता है। कुछ दिन बीमार पड़ने के बाद, भीतर से फिर वही उत्साह है, जो सतत बने रहता है।  शाम से पहले के हिस्से को आप अदृश्य समझ लीजिए। कुछ चीजें वक्त के साथ दृश्यमान हों तभी बेहतर रहता है। सात बजने को हैं और नोएडा एक्सटेंशन की तरफ बढ़ते हुए सड़कों के किनारे के ठेले कम ही दिख रहे हैं। ऑटो की संख्या में भी कमी है। गौड़ चौक से पहले पड़ने वाले नाले के किनारे जगह-जगह दिखने वाले आम के ठेले, टेक्टर व  बैलगाड़ी में बिखरे आम नदारद हैं। ताज़ी सब्जियों की दुकानें भी गायब हैं। सामने नीचे की तरफ स्टेडियम के ऊपर फुटपाथ पर सब्जियों की कुछ दुकानें जरूर लगी हैं। जहां

कोरोना काल: घरों के भीतर व घरों के बाहर के लोग

ललित फुलारा जब मैं यह लिख रहा हूं..  जुलाई बीतने वाली है। फुटपाथ, सड़कें, गली-मोहल्ले कोरोना से निर्भय हैं! जीवन की गतिशीलता निर्बाध चल रही है। लोगों के चेहरों पर  मास्क  ज़रूर हैं, पर भीतर का डर धीरे-धीरे कम होने लगा है। रोज़मर्रा के कामकाज़ पर लौटे व्यक्तियों ने आशावादी रवैये से विषाणु के भय को भीतर से परास्त कर दिया है। घर के अंदर बैठे व्यक्तियों की चिंता ज्यादा है, बाहर निकलने वाले जनों ने सारी चीजें नियति पर छोड़ दी हैं।  वैसे ही जैसे असहाय, अगले पल की चिंता, दु:ख, भय और परेशानी ईश्वर पर छोड़ देता है।  हम भारतीयों की सबसे बड़ी ख़ासियत है कि जब हम चीजों को ईश्वरीय सत्ता पर छोड़ देते हैं, तो निराशा के पलों में भी हमारे भीतर जबरदस्त आशा व उत्साह पैदा हो जाता है, जो अवसाद, तनाव और उलझनों से झट से बाहर धकेल देता है। मजदूरों, फैक्टियों में काम करने वाले कामगारों, रेहड़ी-पटरी लगाकर गुजारा करने वाले फल, सब्ज़ी, खानपान विक्रेताओं व साफ-सफाई कर्मचारियों के साथ ही आजीविका के लिए बाहर निकलने वाले निम्न मध्यवर्गीय व मध्यवर्गीय परिवारों के नौकरी- पेशा लोगों ने अब मन को पक्का कर लिया है।  भाग्यव

साहित्य और सोसायटी: उनकी आंखों में कई किताबें हैं जिनसे अनगिनत कहानियां झांकती हैं!

समान प्रवृत्तियां इंसान को चुंबक-सी खींच लेती है। जुड़ाव-सा हो जाता है। जब पहली बार मैंने मुकेश को देखा, तो एकाएक ठहर-सा गया। उसके टेबल पर मधु कांकरिया का उपन्यास 'सेज पर संस्कृत' था और मुझे देखते ही वो कुर्सी से खड़े होकर 'नमस्ते सर' बोला था। हर गगनचुंबी आधुनिक सोसायटी की तरह मेरी सोसायटी का रिवाज भी है कि यहां हर टावर के नीचे पहरा दे रहे सिक्योरिटी गार्ड्स अपने-अपने फ्लैट से निकलने वाले हर शख्स को सलाम और नमस्ते जरूर ठोकते हैं।  कई बार अटपटा लगता है पर आदत-सी हो गई है। मैं उम्र के हिसाब से पलट कर 'नमस्ते भैया' और 'नमस्ते अंकल' के तौर पर जवाब देता हूं। व्यक्ति की गरिमा और उसके भीतर की खुशी के लिए! अंकल बोलते ही कई उम्रदराज सिक्योरिटी गार्डस के चेहरे की रौनक दोगुनी हो जाती है। पिछले दिनों जब मैं पार्क की तरफ जा रहा था तभी मेरी नजर मुकेश पर पड़ी थी और मैं ठहर गया! मैंने उससे पूछा- 'क्या तुम्हें साहित्य पढ़ने का शौक है।' मेरी बात पर उसने कहा-  'हां सर। जो किताबें मिल जाती हैं, पढ़ लेता हूं। अभी यह किताब पढ़ रहा हूं।' दरअसल, मुकेश को अक्सर

हिलमणी का रेडियो

वॉइस कमांड के इस युग में हिलमणी होते तो बेटे का लाया रेडियो कभी नहीं तोड़ते। 'चुप जा रे' कहते ही रेडियो बंद हो जाता है और हिलमणी का गुस्सा शांत। मोहरी पर रखा हुआ रेडियो बड़ी देर से बज रहा था और गोठ में हुक्का फूंक रहे हिलमणी के कान देसी गानों से फटे जा रहे थे। घर ही नहीं, गांव में यह पहला नया रेडियो आया था। रेडियो सुबह- शाम खोई में लौंडों के साथ ही सैणियों की भी भीड़ जुट जाने वाली हुई। सबको गीत सुनने ठहरे। कई दिनों तक पहाड़ी गीत और भजन चले फिर देसी गानों की धुन बजने लगी। एक दिन बेटा बाली रेडियो बजाकर ऊपर गांव की तरफ चल दिया। घंटा हो गया रेडियो ने चुप होने का नाम ही नहीं लिया तो गोठ से तमतमाते हुए हिलमणी हुक्का उठाकर बाहर आए और पांच-छह बार 'चुप जा रे' बोला। हर दिन तो एक घंटे बाद बंद हो ही जाता था आज नहीं हो रहा क्या बात? यह सोचते हुए वह रेडियो के बगल में बैठकर हुक्का गुड़गुड़ाने लगे। हिलमणी ने फिर बोला 'या तो चुप हो जा या फिर पहाड़ी गाने सुना।' रेडियो ने उनकी एक नहीं सुनी और देसी गाने बजते रहे। बुड्ढे ने रेडियो की दो-तीन बार पीठ भी थपथपाई 'अरे च

लोक संस्कृति में रंग भरने वाला पहाड़ का चितेरा जिसकी पेंटिंग,कविता और गायन जीत रही दिल

भास्कर की पेंटिंग भास्कर भौर्याल बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। उम्र सिर्फ 22 साल है। पर दृष्टिकोण और विचार इतना परिपक्व कि आप उनकी चित्रकारी में समाहित लोक संस्कृति और आंचलिक परिवेश को भावविभोर होकर निहारते रह जाएंगे। उनके चटक रंग बरबस ही अपनी दुनिया में खोई हुई आपकी एकाग्रता, को अपनी तरफ खींच लेंगे। वो जो अंकित कर रहे हैं, अपनी जड़ों की तरफ ले जाने की खुशी से आपको भर देगा। भास्कर के तैलीय चित्र हृदय की गहराई में जितने उतरते हैं, उनकी कुमाऊंनी में प्रकृति के सौंदर्यबोध वाली कविताएं उजाड़ मन में पहाड़ प्रेम को उतना ही ज्यादा भर देती हैं।  भास्कर की कई कविताएं/गीत मिल जाएंगे,  भास्कर की कई कविताएं/गीत मिल जाएंगे, जो अपनी बोली में धरती को ब्यौली (दुल्हन) की तरह संजाने की कामना से भरे हैं।  वो अब तक 200 से ज्यादा चित्र बना चुके हैं, जिनमें ग्रामीण परिवेश की बारीकियां, पहाड़ की संस्कृति में अहम भूमिका निभाने वाले वाद्य यंत्र, उत्तराखंड की संस्कृति के प्रतीक लोकनृ­त्य झोड़ा और चांचरी, एवं कुमाऊंनी, गढ़वाली और जौनसारी वेशभूषा.... आदि के विविध आयाम झलकते हैं। भास्कर कहते हैं, ‘मुझे चि

एक लेखक की व्यथा और उसके लिए सलाह

कल एक होनहार और उभरते हुए लेखक से बातचीत हो रही थी। उदय प्रकाश और प्रभात रंजन की चर्चित/नीचतापूर्ण लड़ाई पर मैंने कुछ लिखा, तो उसने संपर्क किया। शायद उसे मेरे लेखक होने का भ्रम रहा हो। उसकी बातों ने मुझे सोचने पर मजबूर किया। उसने कहा, 'मैं लिखने के लिए ही जी रहा हूं पर मेरे लिखे को कोई तवज्जो नहीं देता क्योंकि मुझे नहीं पता किसी के गैंग में कैसे शामिल हुआ जाए। कई पत्रिकाओं को कहानी भेज चूका हूं। एक उपन्यास का पूरा ड्राफ्ट एक बड़े प्रकाशक के यहां पड़ा हुआ है।  ललित फुलारा देश का जाना- माना प्रकाशक। ऐसा प्रकाशक जिसके कर्ता-धर्ता ने अपने क्षेत्र/राज्य के गांव-गली से खोज-खोजकर लोगों को लेखक बना दिया। एक जानी मानी पत्रिका से पहले मेल आया कि आपकी कहानी छाप रहे हैं और फिर नहीं छपी! जब मैंने फोन किया तो मुझे औसत करार दिया गया। इससे पहले तक मुझसे आग्रह किया गया था कि किसी दूसरी पत्रिका में वो कहानी न भेजें, क्योंकि उसे हम छापेंगे। जब दूसरी पत्रिका को भेजा और उसके संपादक को फोन किया तो वो बोले 'आपकी ये कहानी तो अमूक पत्रिका में आ रही थी। आपने पहले उसे ही चुना फिर अब हमें क्यों दे