समान प्रवृत्तियां इंसान को चुंबक-सी खींच लेती है। जुड़ाव-सा हो जाता है। जब पहली बार मैंने मुकेश को देखा, तो एकाएक ठहर-सा गया। उसके टेबल पर मधु कांकरिया का उपन्यास 'सेज पर संस्कृत' था और मुझे देखते ही वो कुर्सी से खड़े होकर 'नमस्ते सर' बोला था। हर गगनचुंबी आधुनिक सोसायटी की तरह मेरी सोसायटी का रिवाज भी है कि यहां हर टावर के नीचे पहरा दे रहे सिक्योरिटी गार्ड्स अपने-अपने फ्लैट से निकलने वाले हर शख्स को सलाम और नमस्ते जरूर ठोकते हैं।
कई बार अटपटा लगता है पर आदत-सी हो गई है। मैं उम्र के हिसाब से पलट कर 'नमस्ते भैया' और 'नमस्ते अंकल' के तौर पर जवाब देता हूं। व्यक्ति की गरिमा और उसके भीतर की खुशी के लिए! अंकल बोलते ही कई उम्रदराज सिक्योरिटी गार्डस के चेहरे की रौनक दोगुनी हो जाती है। पिछले दिनों जब मैं पार्क की तरफ जा रहा था तभी मेरी नजर मुकेश पर पड़ी थी और मैं ठहर गया! मैंने उससे पूछा- 'क्या तुम्हें साहित्य पढ़ने का शौक है।' मेरी बात पर उसने कहा- 'हां सर। जो किताबें मिल जाती हैं, पढ़ लेता हूं। अभी यह किताब पढ़ रहा हूं।'
दरअसल, मुकेश को अक्सर अख़बारों व कुछ कटिंग्स को पढ़ते हुए देखकर एक शख्स ने यह किताब थमा दी थी। उनको यह किताब उनके ऑफिस में हुए हिंदी पखवाड़े में मिली थी। मुकेश से थोड़ी बातचीत होने के बाद मैं पार्क की तरफ बढ़ गया और साथ ही यह भी कहते हुए गया की उसे और किताबें पढ़नी हो, तो मेरे यहां से ले जा सकता है। कल रात मैं जब फ्लैट से निकल बाहर जा रहा था, तो मैंने अपने टावर के नीचे ड्यूटी कर रहे गार्ड को तन्मयता से अखबार पढ़ते हुए देखा। मुझे सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए देखते ही वो कुर्सी से खड़ा हो गया और नमस्ते बोला। मैं उसके पास रुका और उसका नाम पूछते हुए कहा...'अगर मैं आपको कुछ पत्रिकाएं दूं तो आप पढ़ेंगे। सुमन का जवाब था 'हां सर..बिल्कुल पढ़ेंगे। इससे वक्त भी कट जाएगा और कुछ जानकारी भी हो जाएगी।'
मैं वापस फ्लैट की तरफ लौटा और भीतर से नया ज्ञानोदय और कथादेश पत्रिका लाकर उसे दे दी।' जब मैं डेढ़ घंटे बाद लौटा, तो सुमन पत्रिका खोलकर एक कहानी पढ़ रहा था। मैंने बस एक नज़र देखा और सीढ़ियां चढ़कर फ़्लैट की तरफ बढ़ गया। जबकि मैं सोचकर आया था कि उससे और ज्यादा बात करूंगा, लेकिन उसकी तन्मयता को देखकर मैंने डिस्टर्ब करना उचित नहीं समझा। शायद इसलिए कि मैं नहीं चाहता था कि कहानी में उसके पात्रों की लय गड़बड़ाए।
सुमन को देखते ही मुझे अचानक मुकेश की याद आ गई और मैंने रात में ही तय किया कि रविवार को जाकर उससे मिलूंगा। मैं जब आज मुकेश से मिलने गया, तो वो 'सेज पर संस्कृत' का आखिरी पेज पलट रहा था। मुझे देखते ही पहचान गया और मैंने भी पूछ डाला कि उपन्यास खत्म हो गया। उसने कहां- हां सर बस आखिरी पेज है। एक हफ्ते में ही पढ़ डाला। मुकेश 27 साल का है और पिछले एक से भी ज्यादा साल से मेरी सोसायटी में गार्ड की नौकरी कर रहा है। उसने बताया कि बिसरख के पास अपने एक रिश्तेदार के साथ झुग्गी में रहता है। बदायूं का रहने वाला है। परिवार की आर्थिक तंगी की वजह से बारहवीं से आगे नहीं पढ़ पाया।
दीदी की शादी के बाद पिता पर कर्ज को बोझ चढ़ गया था इसलिए, नौकरी के लिए घर से बाहर निकलकर शहर की तरफ आ बढ़ा। गांव में आठ-नौ बीघा जमीन है। अब परिवार की आर्थिक स्थिति एकदम ठीक है। पर पढ़ाई जो एक बार छूट गई तो छूट ही गई। लेकिन साहित्य पढ़ने के साथ ही गाने का भी बहुत शौक है। मैंने उससे पूछा कैसा लगा उपन्यास?
यह उपन्यास बेहद मार्मिक है, सर।
इसे पढ़ते हुई कई बार मेरी आंखों में आंसू तक छलक आए। किसी भी उपन्यास और कहानी को ऐसे पढ़ना चाहिए कि उसके किरदार आंखों के आगे दिखाई दे। मैंने पूरी लगन से इसे पढ़ा और संघमित्रा और छुटकी मेरी आंखों के आगे-आगे चलने लगे।' वह एक ही सांस में पूरी बात कह गया। मैं मुकेश की बातों को बड़े ही ध्यान से सुनते गया। उसके मन में धर्म के नाम पर होने वाले कर्मकांडों के प्रति रोष था। अचानक उसने मुझसे कहा- 'सर इस उपन्यास की तरह ही हर व्यक्ति के जीवन की कहानी होती है।' मैंने उसके पास खड़े रहकर उसकी कहानी सुनी जिसे मैं लिखना नहीं चाहता। हर व्यक्ति के जीवन की एक त्रासदी होती है जो निजी होती है। अक्सर कंधा खोजने के लिए व्यक्ति उन त्रासदियों को भावुकता से कह डालता है। मैंने मुकेश से बस इतना कहा कि अगर उसे पढ़ने का इतना ही शौक है, तो आगे की पढ़ाई ओपन से जारी रख सकता है। उसने बस हां मैं सिर हिलाया।
मुकेश और सुमन जैसे व्यक्तियों से मुझे इसलिए मोहब्बत होती है, क्योंकि साहित्य के असल पाठक ये ही हैं। कविता, कहानी और किस्से इनके ही संघर्षों से निकलती है। इनकी जिजीविषा सम्मान की हकदार है। बड़ी-बड़ी गगनचुंबी इमारतों में रहने का मतलब, स्नेह, प्रेम व सम्मान का खत्म होना नहीं होता। पैसा और समृद्धि अभिमान खरीद सकती है, मनुष्यता और सहजता नहीं।
पुनश्च:
सुमन से बात करना बाकी है। मैं जरूर उससे पूछूंगा कि उसको इन पत्रिकाओं में क्या अच्छा लगा। किताबों का होना, किताबों को बांटने व उन पर संवाद करने का अपना ही सकूं है, जो इजहार नहीं किया जा सकता।
(अमर उजाला डिजिटल में प्रकाशित लेख)
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