शनिवार का दिन। अगस्त की पहली तारीख़। यूपी में लॉकडाउन। नोएडा की सड़कों पर आवाजाही सामान्य दिनों की तरह। जगह-जगह बैरिकेड। कहीं पुलिसवाले और कहीं सिर्फ पुलिस के आने का डर। दफ़्तर में खाली कुर्सियां और कैबन। पिछले बीस दिनों से वो ही चेहरे जिनके होने का पहले से ही अंदाजा रहता है। मुंह पर मास्क और भीतर से थोड़ी चिढ़ व झुंझलाहट। मज़बूरी कुछ ऐसी, जो अपने वक्त के इतिहास के पन्नों में दर्ज, तो हो जाती है पर पन्नों के किताब बनने में वक्त लगता है। कुछ दिन बीमार पड़ने के बाद, भीतर से फिर वही उत्साह है, जो सतत बने रहता है।
शाम से पहले के हिस्से को आप अदृश्य समझ लीजिए। कुछ चीजें वक्त के साथ दृश्यमान हों तभी बेहतर रहता है। सात बजने को हैं और नोएडा एक्सटेंशन की तरफ बढ़ते हुए सड़कों के किनारे के ठेले कम ही दिख रहे हैं। ऑटो की संख्या में भी कमी है। गौड़ चौक से पहले पड़ने वाले नाले के किनारे जगह-जगह दिखने वाले आम के ठेले, टेक्टर व बैलगाड़ी में बिखरे आम नदारद हैं। ताज़ी सब्जियों की दुकानें भी गायब हैं। सामने नीचे की तरफ स्टेडियम के ऊपर फुटपाथ पर सब्जियों की कुछ दुकानें जरूर लगी हैं। जहां इक्का-दुक्का लोग सब्जियां खरीद रहे हैं।
मैं स्कूटी पर हूं और सड़क किनारे नारियल बेचने वाले को खोज रहा हूं। ऑफिस से निकलते ही मैंने सोच लिया था कि दो नारियल पानी जरूर पिऊंगा। काफी देर बाद बड़ी मुश्किल से मुझे एक नारियल पानी वाला, निराला स्टेट से पहले सूरजपुर वाली रोड पर दिखा। मैंने फुटपाथ पर स्कूटी लगाई और उतर गया। वहां एक तखत था जिस पर चार लोग लेटे थे और एक गाना बज रहा था। जिसके बोल मुझे याद नहीं। धूप और बारिश से बचने के लिए ऊपर नीले रंग का तिरपाल ओढा था और सफेद रंग के एक दूसरे तिरपाल से ठेले पर रखे नारियलों को आधा ढका गया था।
नारियल पानी की दुकान से झांकता चांदबाबू |
'40 रुपये का एक नारियल। बड़ा वाला 50 रुपये का।'
मोबाइल में गढ़ी आंखों ने मेरी तरफ देखते हुए जवाब दिया। मैंने कहा, 'एक दे दे भाई फटाफट।' उनमें से एक उठा और उसने दो-तीन नारियलों को हाथ से तोला और उनमें से एक को छिलकर मुझे थमा दिया।
सामने रखे थैले में प्लास्टिक की एक स्ट्रॉ निकाली और मेरी तरफ बढ़ा दी। मैंने स्ट्रॉ को देखा और सामने रखे पानी के बोतल में से पानी निकालकर उसे दो-तीन बार धोया और आखिर में उस पारदर्शी नली को नारियल के भीतर डालते हुए तेजी से सांस खींची..और पूरा पानी चूस लिया।
उसके बाद एक और नारियल मांगा।
लाल रंग का टीशर्ट पहना शख्स फिर उठा उसने एक नारियल छिला और मुझे थमा दिया। 'पुलिस वाले कितने रुपये ले जाते हैं।' मैंने अचानक चांद बाबू से पूछा और उसने मेरी तरफ देखते हुए कहा। 'महीने में देते हैं।' मैंने ज्यादा जानकारी चाही, तो उसने सामने बैठे दूसरे शख्स आरिफ़ (काल्पनिक नाम, असल नाम भूल गया) की तरफ इशारा किया और मैंने उससे फिर वही सवाल दोहराया।
आरिफ खड़ा हुआ और उसने हंसते हुए जवाब दिया। 'कुछ नहीं ले जाते। महीने में कोई पैसा नहीं देते।' मैंने उससे कहा, 'ऐसा नहीं हो सकता। कुछ तो ले जाते होंगे। उसने जवाब दिया, 'पैसा नहीं ले जाते नारियल पानी पी जाते हैं। कुछ जो भले होते हैं, वो हाथ के हाथ पैसे दे जाते हैं और कुछ अगले चक्कर में आने पर पैसा देने की बात कह जाते हैं।'
'अगले चक्कर में दे जाते हैं।' मैंने नारियल पानी पीकर खत्म करते हुए पूछा। उसने जवाब दिया, ' जिसे नहीं देना होता, वो ही अगले चक्कर में आकर देने की बात कहते हैं। बाकी पुलिस वाले हैं.. सर। जैसे ही हर कौम चाहे हिंदू हो या मुसलमान, में कुछ अच्छे और कुछ बुरे लोग होते हैं, वैसे ही पुलिस में भी कुछ अच्छे व बुरे हैं।
कुछ पांच-दस रुपये कम दे जाते हैं और कुछ फ्री में नारियल पानी पी जाते हैं।' आरिफ ने जवाब दिया और अब हम सभी थोड़ा-थोड़ा एक-दूसरे से खुल गए। मैंने उससे पूछा- 'लॉकडाउन में कितना नुकसान हुआ।'
'बहुत नुकसान हो गया। तीन दुकानें लगाते थे एक ही बची है। इंद्रापुरम से यहां शिफ्ट होना पड़ा।' आरिफ़ का कहना था कि उसे कोरोना वायरस से बचाव के लिए लगे लॉकडाउन में साठ हजार रुपये का नुकसान हुआ जिसकी भरपाई स्कूटी बेचकर करनी पड़ी। जब पहली बार लॉकडाउन की घोषणा हुई, तो उसके चार-पांच दिन बाद वो हिम्मत करने सड़क किनारे के अपने ठेले को देखने आया, जहां खूब सारे नारियल ऐसे ही छोड़कर चल दिया था।
जब आकर देखा तो फुटपाथ किनारे लगने वाली तीनों दुकानों में से नारियल और तखत गायब थे!! गौड़ सिटी के आसपास लगने वाली दुकान का तखत एक चाय वाले के पास मिला जिसका कहना था कि गांव वाले इसे बैलगाड़ी में रखकर ले जा रहे थे। किसी तरह लोगों ने बचाया। आरिफ ने फिर से दो ठेलों पर नारियल रखने शुरू कर दिये हैं। नारियल इतने ज्यादा हैं कि उनमें से एक व्यक्ति को रात में वहीं सोना पड़ता है, ताकि कोई नारियल निकालकर न ले जाए।
मंडी से नारियल उठाकर लाना और उसके बाद फुटपाथ पर उसे बेचने से ही आरिफ का घर चलता है। मार्च के मध्य से लेकर मई के आखिर तक जब तक लॉकडाउन रहा, उनका पूरा धंधा चौपट हो गया और मंडी से जितने नारियल भरे थे, वो सारे दूसरे लोग उठाकर ले गए। बरेली से आकर नोएडा में पिछले तीन साल से सड़क किनारे नारियल की दुकान लगाने वाले आरिफ का भरा-पूरा परिवार है और चांद बाबू और वह नारियल की दुकान संभालते हैं। बाकी दो बच्चे जो दुकान पर और थे, वो पढ़ाई करते हैं, उनका नाम मैं भूल गया। आरिफ का भी ये ही कहना था कि नुकसान तो हुआ ही हुआ..लेकिन कोरोना से बच गए ये ही काफी है।
मैंने इससे पहले चांद बाबू से पूछा था, 'आज तो लॉकडाउन है फिर कैसे दुकान खुली।' उसने बड़ी सफाई से जवाब दिया। 'दुकान खुली कहां है? सारे नारियल तो ढक रखे हैं। पुलिस वाले जब आते हुए दिखते हैं, तो तिरपाल खिसका देते हैं और बैठ जाते हैं। नारियल की रखवाली करने के लिए किसी को तो बैठना पड़ेगा। बैठे हुए हैं, बेच थोड़ी रहे हैं।' मैंने उससे कहा, 'पुलिस वाले कुछ कहते नहीं'..उसने कहा, 'कहते हैं। डांटते हैं। क्या करें आप जैसे कुछ लोग आ ही जाते हैं, जिनको नारियल पानी चाहिए, अगर शनिवार के दिन यह ठेला बंद होता तो कैसे पीते आप नारियल पानी। अंदर सोसायटी के भीतर देखो सारी दुकानें खुली हैं। '
दोनों से बात कर ही रहा था तभी जीजा जी का फोन आ गया। मैंने दो और नारियल मांगे और स्कूटी की डिग्गी में रख लिये। जैसे ही मैंने स्कूटी स्टार्ट की पीछे से तेजी से दो स्कूटी आई जिनमें चार पुलिसकर्मी थे। उनमें से एक महिला पुलिसकर्मी स्कूटी से ही चिल्लाई, 'ये दुकान कैसे खोल रखी है।' दो के चेहरे पर मास्क थे और दो ने चुन्नी लपेटी थी। सभी स्कूटी से उतरे और खड़े हो गए। इतने में मैं तेजी से बोला, 'अरे चांद भाई और आरिफ बाबू.. मैं चलूं क्या? मैडम क्या मांग रही हैं....? पुलिसकर्मियों ने मुझे और मैंने उन्हें देखा.... दोनों ने एक-दूसरे की तरफ हाथ उठाया और मैं निकल गया।
रविवार की सुबह मैं फिर नारियल पानी पीने गया तो दुकान पर सिर्फ छोटा बच्चा था। मैंने दो नारियल पानी पिए और दो घर के लिए रखवाते हुए पूछा। कल पुलिसवाले क्या कह रहे थे? उसने कहा- दुकान क्यों खोली है पूछा और उसके बाद चारों ने नारियल पानी पिया और पैसे देकर चल दिए।
सड़कों पर कहानियां मिलती हैं। दु:ख/सुख और दर्द बिखरा हुआ है। उनके पास वक्त भी है बात करने के लिए। खुशी बांटने और दर्द सुनाने के लिए। कहानियां वहां नहीं मिलती, जहां एक व्यक्ति दूसरे से अस्पर्शय हो जाता है। संवाद को खत्म कर देता है, ऊंची कुर्सी वाला निचली कुर्सी पर बैठे हुए को हीन समझता है। उससे बात करने को अपनी तौहीन मानता है। वहां न दर्द बांटा जा सकता और न ही खुशी साझा की जा सकती। पर कहानियां व किस्से तो ऐसे किरदारों के भी होते हैं, जो मौन पन्नों में खींचे जाते हैं.. और वक्त की सुई घूमते ही चीख-चीखकर एक कान से दूसरे कान तक पहुंचकर ऐसी कहानियां हवा में तैरती हैं.....। अच्छे और बुरे दोनों दिनों की कहानियां होती हैं.....। और कहानियां कहने के लिए ही होती हैं।
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