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पहाड़ की पहरू ईजा


फोटो साभार- युवा चित्रकार भास्कर भौर्याल

ललित फुलारा

असल मायने में पहाड़ की पहरू ईजा ही ठहरी। सदियों से ईजाओं ने ही पर्वतीय जनजीवन को संवारा व बचाया ठहरा। उनकी बदौलत ही शिखरों से घिरे हमारे गौं, पुरखों की स्मृतियों की याद लिए खंडहरों के बीच भी खड़े ठहरे। हमारी ईजाएं न होती, तो ये पहाड़ टूट जाते! सूनेपन, उदासी व उजाड़ के दु:ख से धराशायी हो जाते! दरक जाती घाटियां और महाप्रलय से पहले ही दूर पर्वतों की तहलटी पर बसे गौं; धरती की कोख में समा जाते। न यादें होती और न ही स्मृतियां! न गीत व कविताएं लिखी जातीं और न ही कहानियां बुनी जातीं।

शुक्रिया कहो ...  अपनी ईजाओं को जिनकी बदौलत पहाड़ बसे रहे, बने रहे व बचे रहे।
 
बियावान में अग्नि धधकने के दु:ख के बाद भी पेड़-पौधे खुशी-खुशी लहलहाते रहे। लोक और संस्कृति बची रही। रीति-रिवाज और बोली का गुमान रहा। लोकगाथाओं की आस्था में सिर झुके और जागर की रौनक छाई। पहाड़ों का खालीपन भी ईजाओं के पदचाप, कमर की दाथुली, हाथ का कुटऊ, सिर की डलिया और आंचल के स्नेह से भरा रहा।
हिमांतर पत्रिका में प्रकाशित


जब हमारे बुबुओं की पीढ़ी ने पोथी लेकर धैली से बाहर कदम रखा और चौथर पार किया, तो हमारी आमाओं के साथ पहाड़ को खुशहाल  'पहाड़' बनाने वाली हमारी ईजाएं ही थीं।  जब हमारे पिताओं ने सरहद लांघीं, तो भी बुढ़ी आखों और झुकी देह के साथ कंधे से कंधा मिलाकर दु:ख /सुख और दर्द बांटती हमारी ईजाएं ही रहीं। जब हमने गौं की सड़क छोड़ी, उस वक्त भी बस के पीछे से निहारने वाली दो आंखें और 'जा च्यैला...जल्दी लौटिए' कहने वाली ईजा ही थी। जब हमारे खेत-खलिहान फसलों से लहलहाते थे, तब भी ईजाएं ही रहीं... और जब सुअरों और बंदरों ने हमारे पाख लांघे, तब भी उनको हंकाने के लिए ईजाएं ही रहीं।

जब बेटा गौं छोड़कर अपनी पत्नी को शहर ले जाने के लिए आया, तो सिर पर बोझा लेकर केमु बस पकड़वाने वाली ईजा ही ठहरी। अपनी तकलीफ छुपाते हुए खुशी-खुशी 'जा ब्वारी असोज बंटोने आ जाना है' कहने वाली भी हमारी ईजाए ही हुईं।

हमारी ईजाओं के आंचल से ही पहाड़ लिपटा ठहरा और वो ही पर्वत के अंगोव से चिपकी जुझारू, संघर्षशील  व 'पहाड़' जैसी जिजीविषा लिए असल पहरू हुई। हम जब शब्द बुन रहे थे और दु:ख व सुख को भावों में पिरो रहे थे, तब ईजा भौर में चुपचाप उठकर लाठी टेकते हुए दूर छानों को जा रही थी। गोबर बाहर निकाल गोठ में धुंआ लगा रही थी। चमु देवता की केर कर रही थी और बधाड़ पूज रही थी। जब हमारी भैंस ब्यायी, तो ईजा ही ग्यारहवें दिन खरीक में पालथी मारे गोबर के कुंडे बनाकर दूध भरने वाली हुई। जब रोंसी को ब्याहे बाईस दिन हो रहे थे, तो ईजा ही छान में पुए, लापसी और खीर पकाकर खुशी मनाते हुए; पशुओं के साथ अनादिकाल के रिश्तों को निभाने वाली ठहरी।

जब हमारे नौले सूख रहे थे और पानी की कमी से स्यारे बंजर हो रहे थे, तब भी आसमां की तरफ प्रार्थना के हाथ उठाए, नौले की सफाई करने और स्यारों को बंजर होने से बचाने की चाह रखने वाली ईजा ही ठहरी। जब बच्चों की याद हिकोई झिकोड़ देने वाली हुई तो गाय, भैंस और बकरियों को कसकर गले लगाकर अकेले में दो आंसू बहाने वाली ईजा ही हुई। जब हमारी आमाएं आखिरी सांस गिन रही थी, तो भी ईजा ही थी जो 'ओ ज्यू' कहकर सेवा में जुटी हुई ठहरी।  बुबुओं के हाथ में हुक्का भरकर थमाने वाली ईजा ही हुई। प्रसव पीड़ा में भाभियों को हिम्मत बंधाने वाली ईजा ही ठहरी। जब बेटा ब्या करके गांव गया, बहु को पिछोड़ा पहनाकर नंगे पांव सलामती की दुआ करने के लिए देवी थान भेट चढ़ाने जाने वाली ईजा ही ठहरी। नई-नवेली दुल्हन को गांव घूमाने वाली, अपने बंजर पाटो और रिश्तेदारी बताने वाली ईजा ही हुई।
हिमांतर पत्रिका में प्रकाशित

जब वैश्विक कोरोना महामारी ने शहरों से लौटाते हुए गांवों में हमारे कदम टिकाए, तो टुकटुक बच्चों को दूर से निहारती और गुड़ की ढेली के साथ चाय थमाने वाली ईजा ही ठहरी। पोती-पोतियों को देखकर आंखों के आंसू छिपाने वाली ईजा ही ठहरी। बेटे को लौटा देख भीतर की खुशी छिपाकर तमतमाने वाली ईजा ही हुई।

असल शब्दों और अर्थों में पहाड़ ईजा का ही हुआ और ईजा पहाड़ की हुई। पहाड़ के असल दुख, दर्द और संघर्ष को ईजा से बेहतर कोई नहीं समझ सकता एवं ईजा से बेहतर पहाड़ की परिकल्पना किसी के पास नहीं! हम सबकी ईजा एक-सी ही हुई। बाट जोहती, खुशहाली की कामना करती और अपने गोरु, भैंस और बकरियों के साथ ही मरने और बागेश्वर में ही फूंके जाने का ख्वाब देखती हुई। शहर से दूर गांव भागने के लिए बिलखती और गांव में पहुंचकर सुंकू से प्याज थेचकर मडुवे की रोटी और नहो का पानी पीती हुई, पहाड़ों की असली पहरू हमारी ईजाओं को सलाम!!

ललित फुलारा

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