काकड़ीघाट का वह वृक्ष जहां स्वामी विवेकानंद को हुई थी ज्ञान की प्राप्ति, ग्वेल ज्यू के घोड़े का किस्सा
(अल्मोड़ा-हल्द्वानी के रास्ते में पड़ने वाला काकड़ीघाट) |
इसके बाद उन्होंने बोर्ड की तरफ इशारा करते हुए कहा कि यहां सब कुछ लिखा हुआ है हिंदी और अंग्रेजी में। उनके यह कहने के बाद मैंने बोर्ड में लिखी हुई जानकारी पढ़ी। इसके बाद जंतवाल जी ने हमें भैरव और शिव मंदिर दिखाया और फिर नदी की तरफ ले जाते हुए कहा ' इस नदी की मछली नहीं मारते हैं।'
मेरे साथी ने पूछा- पाली हुई हैं क्या?
उन्होंने कहां- 'हां हां.. पाली हुई ठहरी।'
इसके बाद बताना शुरू किया। एक बार फौज की टुकड़ी आई ठहरी। कुछ फौजियों ने इधर सामने तंबू लगाया और कुछ ने उधर नीब करौरी बाबा के मंदिर के सामने अपना तंबू गाड़ा। अब फौजी ही हुए। उन्होंने मछली देखी और मारकर खा गए। सुबह देखा तो सारे बेहोश हुए ठेहरे।
मैंने पूछा कैसे?
जंतवाल जी मुस्कराये और मेरी तरफ देखते हुए जवाब दिया। रात में ग्वेल ज्यू के घोड़े ने रौंद दिया ठहरा उनको और सबकी नाड़ी ठंडी हो गई ठहरी। फौज में हड़कंप मच गया और कमांडर ने फोन कर दिया कि यहां के लोगों ने फौजियों के खाने में जहर मिला दिया है। इसके बाद माफी मांगी और दंड भरा तब जाकर होश आया उनको। लोग मानने वाले ही कहां ठहरे? गांव वालों ने उनको कहा कि मछली मत मारना। फौज ही हुई। उन्होंने कहा- हम फौजी ठहरे। हमें किस चीज की डर! इसके बाद वे रात में मछली मारकर खा गए ठहरे। फिर क्या? ग्वेल ज्यू नाराज हो गये और उनके ऊपर घोड़ा चल गया..।
मैंने पूछा- यह कब की बात ठहरी बूबू।
बहुत साल पहले की बात हुई बल। उन्होंने मेरी तरफ देखते हुए जवाब दिया।
मेरा साथी यह सुनकर हैरान था। पर मैं नहीं! बचपन से ही पहाड़ों में इस तरह के किस्से मशहूर हैं। जिनके केंद्र में फौज का ही सिपाही होता है। बचपन में ऐसा ही किस्सा मासी के भूमि देव के लिए सुनते आये हैं। जिसे घर के बड़े-बुजुर्ग सुनाते हुए कहते थे। एक बार एक फौजी ने कहा कि मुझसे बड़ा थोड़ी होगा भूमि देव। मैं सरहद पर तैनात होकर देश की रक्षा करता हूं और बिना भूमि देव का आशीर्वाद लिए आगे बढ़ गया। कहते हैं थोड़ी ही आगे गया था उसकी मृत्यु हो गई।
ये लोक किवंदतियां हैं। किसी ज़माने में सच भी हुई होंगी। लेकिन इन किस्सों ने हमारे भीतर जबरदस्त आस्तिकता भरी। ये ही वजह रही कि कोई भी मंदिर पड़ने से पहले ही हमारे हाथ में भेंट आ जाने वाली ठहरी और रास्ते भर में पड़ने वाले सब मंदिरों की तरफ सिर झुक जाने वाला हुआ। सामने नदी के दूसरे तरफ कुछ पर्यटक उधम काट रहे थे। नदी के बीच में जाकर फोटो सेशन चल रहा था। जतंवाल जी ने उनकी तरफ देखते हुए कहा- 'अब लोग कहां मानने वाले हुए। मना करने के बाद भी जाल लगा लेने वाले ठहरे चुपके-चुपके। नहीं तो पहले इस नदी में दो हाथ की मछली होने वाली ठहरी। अब कोई नहीं मानता।
'अब कोई नहीं मानता' कहते हुए उनका खिलखिलाता चेहरा उदासी से घिर आया।इसके बाद उन्होंने एक कुटिया दिखाई और बताया कि ये कुटिया हमारे रिश्तेदारों ने रधूली माई के लिए बनाई ठहरी। मैंने पूछा- 'वो कौन थी?' उन्होंने जवाब दिया कि बहन हुई मेरी.. जोग ले लिया ठहरा और यहीं रहने लगी। माई बन गई ठहरी। इसके बाद उन्होंने पूरा काकड़ीघाट घूमाया और मछली दिखाने के बाद फिर लौटकर भैरव मंदिर दिखाते हुए बताया कि यहीं सोमवारी बाबा को साक्षात शिव ने दो सेकेंड के लिए दर्शन दिए ठहरे। वो सामने सोमवारी बाबा का मंदिर हुआ। नीम करौरी बाबा के गुरु ठहरे। इस जगह की बड़ी महिमा है। दिल्ली, राजस्थान और न जाने कहां-कहां से लोग देखने आते हैं। मैंने उनसे पूछा- 'आपने देखा ठहरा नीम करौरी बाबा को।'
काकड़ीघाट का ज्ञानवृक्ष |
हाय! बहुत लंबे चौड़ी ठहरे।
जब यहां आए थे तब मैं बहुत छोटा हुआ। अपने बाज्यू के साथ उनके दर्शन करने आया। लंबा चौड़ा शरीर हुआ उनका। सिद्द पुरुष ठहरे। सोमवारी बाबा से भेंट करने आये हुये और गांव वालों की भीड़ लग गई। बाबा खूब भंडारा करने वाले हुए। कीर्तन भजन। इसके बाद हमने उनके साथ चाय पी और वह हम सड़क तक छोड़ने आये और बोले चलो नीब करौरी महाराज का मंदिर भी दिखा लाता हूं।
मैंने उनके हाथ में कुछ थमाया और कहा- बूबू! चाहा पाणी पी लिया।
उन्होंने मेरी तरफ देखते हुए जवाब दिया- हाई! रहन दियो कौ। ये किले।
इसके बाद हमने उनको वापस काकड़ीघाट नीचे भेज दिया और नीब करौरी महाराज के मंदिर की तरफ चल दिए। यहां ऊपर नीब करौरी महाराज का मंदिर है और नीचे एक पेड़ की जड़ में सोमवारी बाबा। इस पूरे इलाके में सोमवारी बाबा और हैडा खान बाबा की बहुत महिमा है। दोनों एक-दूसरे का बहुत सम्मान करते थे और एक-दूसरे को सिद्ध पुरुष बताते थे। जब मैंने सोमवारी बाबा के बारे में पूछा तो नीम करौरी बाबा मंदिर के पुजारी जी बोले ' इतना याद कहां रहने वाला हुआ। मैं तुमको एक किताब देता हूं थोड़ा उसे पलट लो कुछ जानकारी मिल जाएगी। उस किताब को पलटते हुए मैं सोमवारी बाबा के थान की तरफ बढ़ गया।'...
जब हम मंदिर के दर्शन कर रहे थे, तभी मंदिर के पुजारी ने आवाज लगाई थी। बिना प्रसाद लिए मत जाना हां..। मेरे साथी ने हां में गर्दन हिलाई और मैंने उससे पूछा था। यह आवाज कहां से आई! उसने इशारा करते हुए बताया कि सामने कुटिया में मंदिर के पुजारी खाना खा रहे हैं, उन्होंने ही लगाई है। नीम करौरी मंदिर में दर्शन करने के बाद हमने पंडित जी से चने का प्रसाद लिया और उन्होंने पूछा कहां से आए हो।
काकड़ीघाट के सामने बहने वाली नदी |
नीम करौरी बाबा के मंदिर के पुजारी जी से बातचीत करते हुए जब हमने काकड़ीघाट का जिक्र किया तो उन्होंने पूछा- 'वहां कौन मिला। 'चंदन सिंह जंतवाल' मैंने जवाब दिया। 'वो पागल' उन्होंने जैसे ही कहा मैं और मेरा साथी दोनों ही नाराज हो गए। जिस इंसान ने आपको इतनी मोहब्बत दी हो और पूरे इंतमिनान से पूरा घुमाया और सारी जानकारी दी वो अगर कोई उसे 'पागल' कहे तो बुरा लगना लाजमी है।
'पागल मत कहिए। वो तो बेहद सज्जन और हंसमुख हैं। उन्होंने ही पूरा काकड़ीघाट घुमाया और यहां भी लेकर आ रहे थे।' मैंने पंडित जी की तरफ देखते हुए जवाब दिया। उन्हें अपने शब्दों पर पश्चाताप हुआ और उन्होंने कहा...मैं तो इसलिए कह रहा था कि कहीं उसने तुमसे पैसे न मांगे हो। 'बिल्कुल नहीं!!!' मैंने जवाब दिया। 'घुट्टी लगाकर टुल्ल रहने वाले हुए इसलिए कह रहा हूं।' मैंने उनको किताब वापस लौटाई और प्रसाद लेकर आगे बढ़ गए।
एक महत्वपूर्ण बात
फेसबुक पर फोटो डालने के बाद अनिल जोशी जी ने ध्यान दिलाया कि साइनबोर्ड पर काकड़ीघाट को कोसी और सुयाल नदियों के संगम पर बसा हुआ बताया गया है। जो कि तथ्यात्मक गलती है। उनका कहना था कि सुयाल तो रीब 12 किलोमीटर ऊपर क्वारब में कोसी में विलीन हो जाती है तो फिर काकड़ीघाट में फिर कहां से अवतरित हो जायेगी। काकड़ीघाट में जो जलधारा कोसी से मिलती है, वो दरअसल सिरौत नामक एक गधेरा है जिसकी उत्पत्ति रानीखेत में नरसिंह मैदान के निकट होती है। इसी के बरसाती पानी को रोककर रानीखेत में 2006 में रानी झील का निर्माण किया गया था। पूरब की ओर बढ़ते हुए यह गधेरा अनेक छोटी जलधाराओं को समेटता हुआ द्वारसौं के निकट से दक्षिण की ओर रूख़ करता है और काकड़ीघाट पहुंचने तक यह एक नदी का आकार ले लेता है। उनका कहना था कि वो पुरातत्व विभाग के अधिकारियों को इस त्रुटि से अवगत करा चुके हैं, उन्होंने इस गलती को स्वीकार भी किया है, मगर सुधार नहीं किया। अगर ऐसा है, तो पुरातत्व विभाग को इस गलती को फौरन सुधार करना चाहिए और बोर्ड पर सही जानकारी देनी चाहिए, जिससे कि पर्यटकों को कोई भ्रम की स्थिति पैदा न हो।
ललित फुलारा
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें