स्पर्श आभासी ही
होता है जब सिरहाने बैठी होती हो। करवटों के सहारे बाहों में भरने की व्यर्थ कोशिश
अब आदत बन गई है। तकिया ही है पता है, फिर भी कहीं कुछ ऐसा है जो ‘समझ’ पर पर्दा डाल
देता है। दृष्यों को आंखों के आगे उकेर
देता है। चेहरे पर खिलखिलाहट ले आता है। अधूरे सपनों में पूरे होने की आशा जगा
देता है।
इस तरह रात बित
जाती है, सांझ तक जो
सांसे जिंदा रखती हैं वो तुम्हारे पास होने भर का एहसास ही तो है। किसे नहीं पता
परछाई भर हो तुम। रोज की तरह सपनों में बुलाई गई और अभ्यास के जरिए पास बैठाई गई
एक आभासी आकृति, जो छटपटाहट को कम कर देती है और जीने की इच्छा को बढ़ा देती है। इतना आसान
नहीं है यह खेल जो चल रहा है।
इसके लिए छवियों
को उकेरना पड़ता हूं, दृश्यों के साथ संवाद स्थापित करना पड़ता है। तब
जाकर कहीं एक कड़ी बन पाती है अवचेतन में। इसके बाद हम घूमती रील के साथ सुनहरे
दिनों के छांव तले बेफ्रिक होकर गमों को टांग आते हैं चीड़ की ऊंचाईयों पर। जिनके
बारे में हमने कभी बात भी नहीं की होती है। बस एक चीज़ जो सबसे ज्यादा परेशान करती
है वो तुम्हारी चुप्पी है जो टूटने का नाम ही नहीं लेती जबकि तुम्हें सबसे ज्यादा
नफरत खामोशी से ही थी।
कोई नहीं, इस ढीढ प्रेमी
ने इसका भी रास्ता निकाल रखा है। अनंत गहराई में उतरकर वापस शोरगुल की दुनिया में
कदम रखते ही तुम्हारी आवाज को मैं अपने कानों तक ले ही आता हूं। इस तरह चौथे पहर
हम दोनों जुदा हो जाते हैं और आस-पास की कई आवाजें मुझे अपनी तरफ खींच लेती हैं।
एक पल के लिए
खुद को अंदर से भरा हुआ महसूस करता हूं। अगले ही पल भ्रम टूट जाता है और बॉस की
डांट के ख्याल से शरीर मे स्फूर्ती आ जाती है। इसके बाद की ऐसी व्यस्तता होती है
कि तुम लाख आना चाहो ख्वाबों पर ताले लग जाते हैं। शाम आते ही फिर बैचने बढ़ जाती
है। जिन रास्तों से आता हूं वहां कई आकृतियों में तुम ही नजर आती हो। हर वो रंग जो
तुम पहना करती थी, जेहन से छूटता ही नहीं है। कई बार शक्लों को गौर
से देखने और घूरने के बाद दिमाग को समझा पाता हूं यह तुम नहीं कोई और है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें