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मुखिया

पत्रकारिता में स्नातकोत्तर के दौरान मुखिया मेरा दोस्त बना। हमारी मित्रता की नींव कृष्ण-सुदामा के लौकिक-अलौकिक संबंधों की बजाय, नफा-नुकसान पर टिकी थी। उसे कमरे की दरकार थी, मुझे झटपट खाना बनाने वाले की। पहले दिन दाल-भात, चौखा खिलाया, दूसरे दिन मिठी-मिठी बातें की और तीसरे दिन 800 का तखत तोड़ डाला। मैं गुस्साता, इससे पहले ही फटा-फट तखत की अदला-बदली कर दी गई और सारा कसूर उस बढ़ई के सर डाल दिया, जो हमारे किराए के कमरे के बगल में काम कर रहा था और ‘स्टूडेंट हैं’ का रोना रोने के बाद दयाभाव से उसने हमारे लिए 1600 में दो तखत बनाए थे। 

अभी भी मेरे कमरे में वही तखत है। सामने उसी पर इस वक्त छोटा भाई पैर में पैर डाल चैन की नींद ले रहा है। मुखिया से इंप्रेश होकर, कमरे के अगले हिस्सेदार के लिए मैंने उसका पुरजोर समर्थन किया, दद्दा और पंडित तो उसकी परछाई भी कमरे में नहीं पड़ने देना चाहते थे।
इस तरह इलाहाबाद, पहाड़, ग्वालियर और बिहार एक कमरे में सिमट गया। 

मुखिया हर बात पर खुलकर मेरा समर्थन करने लगा, अंदर से गदगद मुझे यही लगता सही बंदे से हाथ मिलाया है। कुछ दिन बीतते ही मुखिया ने सबसे पहले दद्दा का संठ किया और उसकी सारी जिम्मेदारी अपने सिर ले ली। सारे हिसाब-किताब के खाते अब मुखिया के हाथों में आ गए और कमरे में क्या बनेगा से लेकर क्या सामाना लाया जाएगा इसका फैसला वही करने लगा। अभी तक हम यही मान के चल रहे थे कि दद्दा ने ही सबसे ज्यादा दुनिया देखी है और वही सबसे तेज तर्रार है। एक महीने बीतते ही दद्दा और मेरे बीच में लक्ष्मण रेखा खींच गई, पंडित इलाहाबादी ज्ञान की बदौलत बचा रहा। मुखिया ने तरक्की करते-करते कमरे से लेकर क्लास तक में धाक जमा ली। ..................जारी ललित फुलारा

(मुखिया मेरी कहानी का काल्पनिक पात्र मात्र है। इसका जीवित और मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। अगर ऐसा होता है तो यह मात्र एक संयोग भर होगा। मुखिया की खोज पत्रकारिता में स्नातकोत्तर के दौरान हुई और तब से यह मेरी कल्पनाओं में रच बस गया। तमाम कहानियों में नजर आने वाला मुखिया मेरे मन की उपज है, अगर किसी के वास्तविक जीवन से इसका कोई मेलजोल होता है तो इसे मात्र संयोग माना जाय।)

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