अंधविश्वास की
सामाजिक जकड़न
हमारा विश्वास ही
अंधविश्वास में तब्दील होता है। बचपन में कई तरह का विश्वास मसलन, आम के पेड़ के
नीचे मत जाना, वहां भूत रहता है। दोपहर में अकेले उस रास्ते पर चलने से छल लगता
है। घर से बाहर निकलते वक्त छींकना, बिल्ली का रास्ता
काटना और रोना अशुभ होता है। और न जाने क्या-क्या लंबी फेहरिस्त है! अरे हां, एक और शामिल है इस लिस्ट में- आंख का
फड़कना। लेकिन, धीरे-धीरे जब हम चीज़ों के ऊपर सोचने की प्रक्रिया से गुजरने लगे
तो लगा, अरे यह तो निरी मुर्खता है। कोई छींक दे तो क्या हम अपना महत्वपूर्ण काम
टाल देंगे? बिल्ली रास्ता काट देगी तो क्या हम पेपर देने
नहीं जाएंगे?
बहुत बार दिल नहीं
माना, लेकिन काम इतना महत्वपूर्ण था कि उसे जबर्दस्ती मनाया। जैसे मंगलवार को शराब
न पीने वाले, अगर पी लें तो, पहली भूल हनुमान जी भी माफ करते हैं, कहकर मन को मना
लेते हैं। बचपन में सुनी और विश्वास की गई ऐसी ही कितनी चीज़े कई सालों तक
अंधविश्वास बनकर साथ चलती रही। फिर सोचा, भई बिल्ली को भी रास्ते पर चलने का
अधिकार है । छींक का आना स्वभाविक है, सर्दी लगने पर, नाक में धुल-मिट्टी जाने पर
वो तो आएगी ही। आम के पेड़ का भूत अब नहीं डराता है। छल लगने वाले रास्तों पर अब
जब जाने का मौका मिलता है, तो खूब सिगरेट पी जाती है, विश्राम किया जाता है और
सुकून की सांस ली जाती है। बिल्ली का रोना आम लगता है, रो रही है तो रोने दो अपना
क्या जाता है?
दिल से एक बार इस
विश्वास के डर को निकाला, तो फिर अमंगल का ख़्याल कभी आया
ही नहीं। उसके बाद कितनी बिल्लियों ने रास्ता काटा, जो मजाल हमने रास्ता बदला हो,
रास्ता क्रॉस करने से पहले रुकर थूका हो। लेकिन, कौन कहता है कि बिल्ली के रास्ता
काटने पर अब लोग नहीं रुकते हैं! पढ़े-लिखे लोग भी वैसा
ही करते हैं, जैसे पुराने जमाने के लोग करते आएं हैं। दरअसल, कई सालों से बिल्ली
काटने वाली बात मस्तिष्क से विसर सी गई थी, लेकिन उस दिन ऑफिस से निकलकर कुछ दूर
पहुंचा ही था कि अचानक याद आ गई! मेरे आगे तीन लोग
चल रहे थे। साइकिल पर अधेड़ उम्र व्यक्ति और दो नौजवान।
अचानक तेजी से
बिल्ली ने रास्ता काट लिया। साइकिल वाला जैसे सहम सा गया हो! साइकिल रोकर पीछे की ओर देखने लगा। और नई पीड़ी
के वो दो नौजवान, उसकी साइकिल के पास रुके और फिर जम से गए। ये देख मुझसे रहा नहीं
गया और रास्ता लांघकर में आगे निकला और ठहर गया। साइकिल वाला फटाफट निकला, उन दोनों
ने भी अपने दिल को तसल्ली देते हुए रास्ते पर दो-तीन बार थूका और बाते करते हुए
निकल गए! दिल कर रहा था एक बार पूछ लें, भय्या बिल्ली के
रास्ता काटने से क्या होता है? फिर सोचा बेकार का
उलझना कहीं उनको नागवारा न लगे। बिल्ली का रास्ता काटने वाला मिथ आज भी वैसा ही है
जैसे पहले था-गांव-देहातों की तो छोड़ो, शहरों में भी लोग उसके रास्ता काटने से या
तो अपना रास्ता बदल लेते हैं, या फिर उस रास्ते से पहले किसी और को निकलने देते
हैं। इसके पीछे की मानसिकता, उन्हें लगता है, इससे मेरी हानि हो जाएगी, संकट खड़ा
हो जाएगा, मेरा अमंगल हो जाएगा। लेकिन, दूसरे के निकलने पर उन्हें इस बात की खुशी होती है कि मेरा संकट टल गया!
अच्छा हुआ धारणा इस
तरह नहीं बनी कि बिल्ली ने रास्ता काटा और एक-एक करके सब रुकते गए। और जब तक पंडित
हवन-पूजन करने न पहुंचे तब तक रास्ता बंद! अगर, ऐसा हो गया
होता तो कोई न कोई पंडित किसी न किसी रास्ते पर इसके निवारण के लिए बैठा होता।
रास्ते भी बहुत हैं और बिल्लियां भी, पंडितों की दुकान अच्छी ख़ासी चल पड़ती। अंधविश्वास
की ये जड़े समाज में कितनी गहराई से बैठी हैं। न जाने कब खत्म होंगी ये!
ललित फुलारा
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें