"बस मैं हूं घूमती
हुई पृथ्वी पर बिल्कुल अकेली"
हर रोज उठाती हूं
रजाई का खोल
ताकती रह जाती
हूं तुम्हें
एक कोने से लेकर
दूसरे कोने तक
कहीं कुछ भी तो
नहीं है
एक दो तीन चार
छवियां गडमडाती हुई
एक हो जाती हैं
मैं जानती हूं
आफिस जाने और आफिस से आने के बीच का
एक लंबा समय अजीब
होता है
एक लंबा पहाडी
रास्ता कर रहा होता है
इंतजार
एक खुला आसमान और
चांद
पता नहीं खुशी
देते हैं
या और उदास कर
देते हैं
पता है पराल का
पेड़ों और खेतों पर पडे रहना
बुलाता है असूज
के महीने पर
अब तो हर दिन
लगने लगता है कि
असूज है कि नहीं
जब भी देखती हूं हथेलियां
खिजाने लगती है
इनकी कोमलता
ताकती हूं क्या
अब भी पड़े छाले पांवों के तलवों में
ठीक असूज के
महीने के मंडाई के वक्त का खाना याद आता है
चाचियों की के
साथ खेंत की मेड़ पर
और आज बंद आफिस
के एक कौंटीन में
तोड़ रहीं हूं
रोटी के कौर
क्या सच में कुछ
भी नहीं लौट सकता
झाडियों में
घुसकर खाना
हिसर किनगोड़
खाना, बमोरों के लिए ताकना
डांडों से आई मां
के पल्लू को,
कुछ ही दूरी पर
तो है मिट्टी से भरे हुए खेत
और खेतों से
गुजरता है एक बचपन
पसारती हूं हाथ
कहीं कुछ भी तो
नहीं हैं,
कुछ भी नहीं
तुम भी नहीं
बस मैं हूं घूमती
हुई पृथ्वी पर बिल्कुल अकेली
अंकिता पंवार युवा कवित्री हैं.. वोगर्थ, लमही, सक्षात्कार, द पब्लिक ऎजेंडा, अमर उजाला आदि में अंकिता की कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं। इस वक्त प्रभात खबर रांची में कार्यरत हैं...
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