ना तुम ना मैं ना समंदर (अंकिता पंवार की नई कविता)
लैम्प पोस्ट की लाइट पड़ती है आंखों पर
बीड़ी की एक कश
उतरता है गले से
बिखरा हुआ कमरा औऱ बिखर जाता है
कहीं कुछ भी तो नहीं ना आंसू ना शब्द
बस एक कड़कड़ीती देह है
जो अकड़ती जा रही है
उफ कितनी बड़ी बेवकूफी है
न जाने के क्यों भगवान याद आते हैं अचानक
और उसी क्रम में एक गाली भी इस शब्द के लिए
उतनी ही गालियां इस लिजलिजे प्रेम के लिए
दूरी, आंसू, आंसू, आंसू
एक दो तीन
प्यार है या सर्कस का टिकट
मैंने प्रेम किया उसकी तमाम बेवकूफियों के साथ
मैंन सोचा क्या एक स्त्री वाकई में कर लेती है कुछ समझौते
एक चुप्पी जो टूट कर कह सकती थी बहुत कुछ
वह चुप्पी चुप्पी ही बनकर रह जाती है
एक निर्मम खयाल आता है पूरी निर्ममता के साथ
दुनिया को कर दूं तब्दील एक पुरुष वैश्यालय में
एक और झनझनाता है हाथ
एक खयाल जो जूझता है खत्म हो जाने और फिर से बन जाने के बीच
एक खयाल जो जिंदगी को कह देना चाहता है अलविदा
है ही क्या रखा इन खाली हो चुकी हथेलियों में
ना चांदनी रात
ना खुला आसमान
खेत ना जंगल ना पहाड़
ना तुम ना मैं ना समंदर
ना जिंदगी
बस पीछे छूट चुके घर
के ठीक सामने वाले पहाड़
पर चढ़ने और उतरने की एक तीव्र इच्छा
एक ऐसी इच्छा जो खत्म हो जाएगी
अपनी पूरी क्रूरता के साथ
आगे
पूरा गहरा चुका एक चुका अंधेरा है
अंकिता पंवार युवा कवयित्री हैं.. वोगर्थ, लमही, सक्षात्कार, द पब्लिक ऎजेंडा, अमर उजाला आदि में अंकिता की कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं। इस वक्त प्रभात खबर रांची में कार्यरत हैं...
लैम्प पोस्ट की लाइट पड़ती है आंखों पर
बीड़ी की एक कश
उतरता है गले से
बिखरा हुआ कमरा औऱ बिखर जाता है
कहीं कुछ भी तो नहीं ना आंसू ना शब्द
बस एक कड़कड़ीती देह है
जो अकड़ती जा रही है
उफ कितनी बड़ी बेवकूफी है
न जाने के क्यों भगवान याद आते हैं अचानक
और उसी क्रम में एक गाली भी इस शब्द के लिए
उतनी ही गालियां इस लिजलिजे प्रेम के लिए
दूरी, आंसू, आंसू, आंसू
एक दो तीन
प्यार है या सर्कस का टिकट
मैंन सोचा क्या एक स्त्री वाकई में कर लेती है कुछ समझौते
एक चुप्पी जो टूट कर कह सकती थी बहुत कुछ
वह चुप्पी चुप्पी ही बनकर रह जाती है
एक निर्मम खयाल आता है पूरी निर्ममता के साथ
दुनिया को कर दूं तब्दील एक पुरुष वैश्यालय में
एक और झनझनाता है हाथ
एक खयाल जो जूझता है खत्म हो जाने और फिर से बन जाने के बीच
एक खयाल जो जिंदगी को कह देना चाहता है अलविदा
है ही क्या रखा इन खाली हो चुकी हथेलियों में
ना चांदनी रात
ना खुला आसमान
खेत ना जंगल ना पहाड़
ना तुम ना मैं ना समंदर
ना जिंदगी
बस पीछे छूट चुके घर
के ठीक सामने वाले पहाड़
पर चढ़ने और उतरने की एक तीव्र इच्छा
एक ऐसी इच्छा जो खत्म हो जाएगी
अपनी पूरी क्रूरता के साथ
आगे
पूरा गहरा चुका एक चुका अंधेरा है
अंकिता पंवार युवा कवयित्री हैं.. वोगर्थ, लमही, सक्षात्कार, द पब्लिक ऎजेंडा, अमर उजाला आदि में अंकिता की कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं। इस वक्त प्रभात खबर रांची में कार्यरत हैं...
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