स्वामी
विवेकानंद के व्यक्तित्व, महानता और दर्शन को एक लेख में बांधना संभव नहीं है. फिर
भी स्वामी जी के उपदेशों में से ‘धर्म’ पर उनकी व्याख्या को उद्धरित किया जा रहा है.
स्वामी जी को पढ़ने के दौरान इसी ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया.
वैसे तो
स्वामी जी की सभी शिक्षाएं व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास के लिए महत्वपूर्ण है.
लेकिन उनकी ‘धर्म’
की व्याख्या हमें सही मायने में इंसानियत और इंसान का पाठ समझाती
हैं. स्वामी जी मनुष्य को सुखी बनाने वाले धर्म को ही वास्तविक धर्म की संज्ञा
देते थे. वो अपने शिष्यों से कहते थे कि जो धर्म मनुष्य को सुखी नहीं बनाता, वो
वास्तविक धर्म है ही नहीं. उसे मन्दाग्निप्रसूत रोग विशेष समझो’.
स्वामी
जी कहते थे, धर्म वाद-विवाद में नहीं है, वो तो प्रत्यक्ष अनुभव का विषय है. जिस
प्रकार गुड़ का स्वाद खाने में है, उसी तरह ‘धर्म’ को अनुभव करो, बिना अनुभव
किए कुछ भी न समझोगे.
स्वामी
जी अपने शिष्यों से अक्सर कहा करते थे- “ धर्म का मूल उद्देश्य है मनुष्य को सुखी करना. किंतु
परजन्म में सुखी होने के लिए इस जन्म में दु:ख भोग करना कोई
बुद्धिमानी का काम नहीं है. इस जन्म में ही, इसी मुहुर्त से सुखी होना होगा. जिस
धर्म के द्वारा ये संपन्न होगा, वहीं मनुष्य के लिए उपयुक्त धर्म है.”
अक्सर
मैं देखते आया हूं कि विश्वविद्यालय की कक्षाओं में ‘धर्म’ शब्द का नाम आते ही तर्क-वितर्क की मुद्राएं एक दूसरे के कॉलर तक पहुंच
जाती हैं. वाद-विवाद का मैदान युद्ध में तब्दील हो जाता है. क्या धर्म ये ही है? या हमने इसे हिंसात्मक और बांटने वाला बना दिया है. इस प्रसंग के माध्यम
से हम इस पर विचार कर सकते हैं.
देने का
आनंद, पाने से बड़ा
एक बार
की बात है भ्रमण
एवं भाषणों से थके हुए स्वामी विवेकानंद अपने निवास स्थान पर लौटे. उन दिनों वो
अमेरिका में एक महिला के यहां ठहरे थे. स्वामी जी अपने हाथों से भोजन बनाते थे. एक
दिन वो भोजन की तैयारी कर रहे थे कि कुछ बच्चे पास आकर खड़े हो गए. बच्चे भूखे थे.
स्वामीजी ने अपनी सारी रोटियां एक-एक कर बच्चों में बांट दी.
महिला
वहीं बैठी सब देख रही थी. उसे बड़ा आश्चर्य हुआ. आखिर उससे रहा नहीं गया और उसने
स्वामीजी से पूछ ही लिया.
‘आपने
सारी रोटियां उन बच्चों को दे डाली! अब आप क्या खाएंगे?'
स्वामी जी ने प्रसन्न होकर कहा- 'मां, रोटी तो पेट की ज्वाला शांत करने वाली वस्तु है. इस पेट में न सही, उस पेट में ही सही. ' देने
का आनंद पाने के आनंद से बड़ा होता है’.
ललित फुलारा
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें