हाउस का नाम जेहन में आते ही एक ऐसी जगह की छवि-सी बनने लगती है।
जहां, प्रत्येक कुर्सी पर बैठे लोग साहित्य से लेकर राजनीतिक और
आर्थिक चर्चाओं में मग्न हैं। टेबल पर घंटों से खाली पड़ी कॉफी की प्याली आराम
फरमा रही है। कल्पना कीजिए, क्या आप आज किसी बरिस्ता में
एक प्याली कॉफी के बहाने घंटों बैठकर अपने दोस्तों, परिचितों से बातें कर सकते
हैं। नहीं! कॉफी की प्याली खत्म होते ही
बैरा आपको जाने का फरमान सुना देगा।
कॉफी
हाउसों में बैठकों का चलन इधर कुछ कम हुआ है। इसे बदलती जीवनशैली में वक्त की कमी
कहिए या फिर कॉफी हाउस मालिकों की व्यापार बुद्धि! आप इसे बोद्धिक वर्ग का कॉफी हाउसों के
प्रति घटता अनुराग या फिर वहां की चिल्ल-पों से हुई विरक्ति का नाम भी दे सकते
हैं। कुछ भी कहें, कॉफी हाउसों में दिखने वाली वैचारिक बहसों व विमर्शों के कल्चर
में काफी गिरावट आई है। कॉफी हाउस आज वीपीओ कर्मियों और कॉरपोरेट एजेंटों का अड्डा
बनते जा रहे हैं।
कॉफी
हाउस अब अतीत बन चुका है: प्रो. लाल बहादुर वर्मा
कॉफी
हाउस साहित्यकारों,
पत्रकारों
और बौद्धिक वर्ग का जीवंत और प्राणवंत स्थान रहा है। जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण
क्रांति के वक्त पटना का कॉफी हाउस विचार-विमर्श और चर्चाओं का केंद्र रहा। यहां
से आंदोलन के लिए न जाने कितने ही नारे निकले। नागार्जुन ने अपनी प्रसिद्ध कविता
की लाइनें ‘ना हम दक्षिण, ना हम वाम, जनता को रोटी से काम’ की सृजना कॉफी हाउस के सामने डांक
बगंले की सड़क पर ही की थी। प्रसिद्ध कवि निशांतकेतु पटना कॉफी हाउस को पाटलीपुत्र
का साहित्यिक संस्करण कहते हैं।
दिल्ली, मुंबई, इलाहाबाद के कॉफी हाउस एक ज़माने में
साहित्यकारों, विचारकों और अर्थशास्त्रियों का कुंभ
हुआ करते थे। यहां विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले युवा, नवोदित कवि, वरिष्ठ साहित्यकार, पत्रकार और राजनीतिक आलोचक एक प्याली
कॉफी पर घंटों बिता दिया करते थे। ‘फूल नहीं चिंगारी हैं, हम भारत की नारी हैं’-जैसे नारों की रचना कॉफी हाउस की ही देन है।
वैसे, अब ये कॉफी कल्चर धीरे-धीरे समाप्ति की
तरफ बढ़ रहा है। प्रसिद्ध इतिहासकार और साहित्यकार प्रो. लाल बहादुर वर्मा का
इलाहाबाद कॉफी हाउस के संबंध में यह कथन महत्वपूर्ण है ‘कॉफी हाउस अब अतीत बन चुका है। वहां अब
वो साहित्यिक कल्चर दिखाई नहीं देता है।‘
युवा
वर्ग कॉफी हाउसों से दूरी बनाकर बैठ गया है। कॉफी हाउसों से जुड़े पुराने लोग
हफ्ते में एक दिन यहां बैठकों का आयोजन कर दिया करते हैं। कॉफी हाउस संचालक भी अब
उतने उदार नहीं रहे। वणिक बुद्धि की वजह से अब कॉफी हाउसों का आकर्षण खत्म-सा होने
लगा है।
पटना
कॉफी हाउस में फणीश्वरनाथ रेणु से लेकर रामेश्वर सिंह कश्यप, जो लोहा सिंह के नाम से लिखते थे, रोज जाते थे।
पब
कल्चर में तब्दील होते कॉफी हाउस
दिल्ली
कॉफी हाउस के संबंध में युवा पत्रकार सुभाष गौतम का कहना है कि इस जगह को अब
कॉर्पोरेट के एजेंट और बीपीओ कर्मियों ने अपनी व्यवसायिक मीटिंग का स्थल बना दिया
है। आज काफी हाउस पूरी तरह से शोर-शराबे और पब कल्चर में तब्दील हो गया है। लोग
वहां अब पिने-खाने भी लगे हैं। लेखकों और पत्रकारों को वहां घंटों इंतजार करना
पड़ता है कि कब जगह खाली होगी तो हम कोई चर्चा करेंगे। ऐसी स्थिति में लेखकों ने
वहां जाना कम कर दिया है। नए लेखक अब मंडी हॉउस के फुटपाथ पर चाय के साथ
चर्चा कर मुलाकत कर लेते हैं। कोई काफी हॉउस जाना पसंद नहीं करता है। इसके अलावा
कॉफी के दामों में भी इजाफा हुआ है।
कॉफी
की शुरुआत
कॉफी विश्व में सबसे
ज़्यादा पी जाने वाली पेय पदार्थों में से एक है। पंद्रहवी शताब्दी में अरब
निवासियों ने सबसे पहले कॉफी उगाई। इसके बाद धीरे-धीरे इसका विस्तार विश्व के सभी
देशों में हुआ। सन् 1843 में एक फ्रेंच ने विश्व की सबसे पहली व्यवसायिक एस्प्रेसो
मशीन बनाई। इसके बाद कॉफी ने कभी न रुकने वाली रफ्तार पकड़ ली। भारत का पहला कॉफी
हाउस मुंबई के चर्चगेट स्ट्रीट के पास 28 सितंबर 1936 में खुला। यह यूरोप में
प्रचलित कॉफी हाउस की तर्ज पर बना था। इसके बाद इलाहाबाद, दिल्ली, पटना और बंगलुरु
में कॉफी हाउस की शाखाएं खोली गई।
भारत में कॉफी का
आगमन
भारत में कॉफी लाने
का श्रेय मुस्लिम संत बाबा बुदान को जाता है। बुदान हज से लौटते वक्त जब येमन के
रास्ते आए तो उन्होंने लोगों को रास्ते में इस अजीब से पेय पदार्थ को पीते हुए
देखा। बुदान ने जब इसका स्वाद चखा तो उन्हें यह पेय पदार्थ बहुत अच्छा लगा और
उन्होंने इसे भारत लाने की सोची। उस वक्त तक कॉफी सिर्फ अरब और यमन के लोग ही पीते
थे। कॉफी के बीजों को अरब से बाहर ले जाने पर कानूनी प्रतिबंध था। अरब के लोग कॉफी
के बीजों को पीसकर पानी में मिलाकर पीते थे।
कहा जाता है कि बाबा
बुदान कॉफी के सात बीजों को अपनी कमर में बांधकर ले आए। इसके बाद उन्होंने इसके
पौधे को यहां उगाया और भारत के लोगों ने कॉफी का स्वाद चखा। भारत में कॉफी हाउस
का स्वर्ण युग 1940 से लेकर 1970 तक माना जाता है।
(बुदान कर्नाटक के
चिक्कामगलुरु जिले में रहते थे।)
-एक लंबी लड़ाई के
बाद इंडियन कॉफी हाउस वर्कर्स को-ऑपरेटिव सोसायटी के हाथों में कॉफी हाउस का
संचालन आ गया। 19 अगस्त 1957 में इसकी पहली शाखा बंगलुरू में खुली। 27 अक्टूबर
1957 में नई दिल्ली के बाबा खड़ग सिंह मार्ग पर इंडियन कॉफी हाउस खोला गया। इसके
बाद धीरे-धीरे इसकी चेन भारत के दूसरे राज्यों में विस्तार पाने लगी।
अमेरिका
कॉफी का सबसे बड़ा उपभोक्ता और ब्राजील सबसे बड़ा उत्पादक देश है। भारत
छह प्रमुख कॉफी उत्पादक देशों में से एक है।
-पहले कॉफी हाउस मक्का में खुले और उन्हें 'कावेह कानेस' कहा जाता था।
भारत के
कई कॉफी हाउस बंद हो चुके हैं। साल 2009 में दिल्ली कॉफी हाउस को बंद करने की
नाकाम कोशिश की गई थी।
लंदन
लंदन में सबसे पहले
ऑस्ट्रेलियन और न्यूजीलैंडियन ने ऐस्प्रेसो केंद्रित कॉफी शॉप खोली। ईस्ट लंदन में
सबसे अच्छी और फेमस कॉफी शॉप्स हैं। लंदन की प्रसिद्ध कॉफी शॉप्स में ‘ऐस्प्रेसो स्पेशलिस्ट’ और ‘क्लिंपसंस
एंड सन्स कॉफी रोस्टेड’ प्रमुख हैं।
-लंदन में 1652 में पास्का रोजा ने पहला
कॉफीहाउस खोला।
ये भी जाने: कॉफी का इतिहास काफी लंबा है। कहा जाता है कि यह
इथोपिया के बाद अरेबिया जुड़ा। सबसे पहले कॉफी का सेवन 875 ई. पूर्व शुरू हुआ।
अरबियन लोगों ने कॉफी को ट्रेंड में शामिल किया। यहां कॉफी केवल घरों में ही नही
पी जाती थी बल्कि सार्वजनिक स्थानों पर पीने का भी चलन था।
लंदन का
सबसे प्रसिद्ध कॉफी हाउस एडवर्ड लॉयर्ड कॉफी हाउस था। इस कॉफी हाउस को थेम्स के
टॉवर स्ट्रीट के पास एडवर्ड लॉयर्ड ने 1685 ई. में खोला। यह एक विशाल कॉफी हाउस
था। 1691 में यह कॉफी हाउस 16 लोम्बार्ड स्ट्रीट के पास चले गया।
बैरटी एंड मिलानो
बैरटी एंड मिलानो
कैफे हाउस इटली के टोरीनो शहर का सबसे खूबसूरत कॉफी हाउस है। इस कॉफी हाउस की
स्थापना सन् 1858 में फेरडिनेडो बैरटी और एडोरडो मिलानो ने की थी। यह कॉफी हाउस
पहले टोरीनो शहर का ह्दय और सांस्कृतिक केंद्र कैसल स्क्वेर (Castle Square) में था। इसके बाद यह सन् 1875 में दूसरी
बिल्डिंग में शिफ्ट हो गया।
कैफे फ्लोरियन
कैफे फ्लोरियन इटली
के सांस्कृतिक और व्यापारिक केंद्र वेनिस में है। यह रोम का सबसे पुराना कॉफी हाउस
है। इसकी स्थापना 1720 में हुई थी। यह कॉफी हाउस आज भी चलन में है।
-रोम में सबसे पहले
कॉफी का आयात यूरोप से सन् 1570 में हुआ। सन् 1683 तक इटली में कोई कॉफीहाउस नहीं
था। ( सोर्स- A Short History of Espresso in Italy and the World Jonathan Morris)
ललित फुलारा
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