क्या कोरोना 'ग्रेड डिप्रेशन 1929' के हालत पैदा कर देगा? वेस्ट एशिया- US की अर्थव्यवस्था रही है चरमरा
डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिकियों की नौकरी बचाने के लिए इमिग्रेशन (अप्रवासन) पर अस्थायी रोक लगा दी है। दूसरे देशों के लोग अब अमेरिका में नौकरी के लिए नहीं जा पाएंगे। यह फैसला अमेरिकी कामगारों के हितों को ख्याल में रखते हुए लिया गया। अमेरिका नहीं चाहता कि कोरोना महामारी के बीच उसकी अर्थव्यवस्था इस कदर चरमराए कि 'ग्रेट डिप्रेशन 1929' जैसे हालत का सामना करना पड़े।
जॉब कट और लेऑफ (स्थाई एवं अस्थाई तौर पर कर्मचारियों को हटाना) से बचने के लिए अमेरिका ने 60 दिनों के लिए ग्रीन कार्ड जारी करने या वैध स्थायी निवास की अनुमति देने की प्रक्रिया पर रोक लगा दी है। इसका विरोध और समर्थन दोनों हो रहा है। ट्रंप का कहना है कि बेरोजगारी बढ़ने के खतरे को भांपते हुए यह फैसला जरूरी था क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया जाता तो बेरोजगारी का स्तर ग्रेड डिप्रेशन के दौरान वाला पहुंच जाता।
कोरोना महामारी के साथ ही रोजगार का भी भय...
यह सच है कि कोरोना महामारी के भय के बीच ही लोगों को अपने रोजगार का भय भी सताने लगा है। इस दौरान जिससे भी बात करो उसके जुबां पर नौकरी का ही डर चढ़ा रहता है। स्वभाविक भी है। क्योंकि जब कई कंपनियों ने अपने कर्मचारियों को निकालना और वेतन में कटौती शुरू कर दी है, तो महामारी के बीच भय का माहौल दोगुना हो ही जाता है। हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कंपनियों से वेतन कटौती न करने और लोगों को नौकरी से न निकालने की अपील कर चुके हैं। लेकिन भारत जैसे देश में अपील से नहीं 'जुगाड़' और चापलुसी से नौकरी बचाई जाती है यह एक कटु सत्य है जो सुनने और पढ़ने में बुरा लगता है। नौकरियों के लिए योग्यता से ज्यादा सिफारिश और चरण बंदना चाहिए होती है- इस बात को कोई भी पूर्ण रूप से झुठला नहीं सकता।
यह तो अर्थशास्त्री ही बताएंगे कि भारत की अर्थव्यवस्था और विभिन्न सेक्टरों पर कोरोना के बाद की स्थिति का क्या असर होगा? कई आकलनों में पहले ही कहा जा चुका है कि कोरोना के बाद की स्थिति में भारतीय अर्थव्यवस्था 1991 के दौर में पहुंच जाएगी। जीडीपी की दर 2 फीसदी से भी नीचे खिसक सकता है।
चरमरा रही पश्चिम एशिया की अर्थव्यवस्था, 80 लाख से ज्यादा भारतीय करते हैं वहां काम
दूसरी तरफ हम देख ही रहे हैं कि कैसे पूरी पश्चिम एशिया की अर्थव्यवस्था चरमरा रही है। महामारी से लड़ने के साथ ही आर्थिक मोर्च को संभालना भी सबसे बड़ी चुनौती साबित हो रहा है। पश्चिम एशिया के देशों में भारत के 80 लाख से ज्यादा लोग काम करते हैं जो भारत में 50 बिलियन डॉलर से ज्यादा पैसा भेजते हैं। कोरोना के बाद यह बदल जाएगा...।
यह तो अर्थशास्त्री ही बताएंगे कि भारत की अर्थव्यवस्था और विभिन्न सेक्टरों पर कोरोना के बाद की स्थिति का क्या असर होगा? कई आकलनों में पहले ही कहा जा चुका है कि कोरोना के बाद की स्थिति में भारतीय अर्थव्यवस्था 1991 के दौर में पहुंच जाएगी। जीडीपी की दर 2 फीसदी से भी नीचे खिसक सकता है।
चरमरा रही पश्चिम एशिया की अर्थव्यवस्था, 80 लाख से ज्यादा भारतीय करते हैं वहां काम
दूसरी तरफ हम देख ही रहे हैं कि कैसे पूरी पश्चिम एशिया की अर्थव्यवस्था चरमरा रही है। महामारी से लड़ने के साथ ही आर्थिक मोर्च को संभालना भी सबसे बड़ी चुनौती साबित हो रहा है। पश्चिम एशिया के देशों में भारत के 80 लाख से ज्यादा लोग काम करते हैं जो भारत में 50 बिलियन डॉलर से ज्यादा पैसा भेजते हैं। कोरोना के बाद यह बदल जाएगा...।
दुबई पश्चिम एशिया इकोनॉमिक पावर सेंटर है। दुबई की अर्थव्यवस्था चरमरा रही है। ऐसे में बार-बार कई अर्थशास्त्री ग्रेड डिप्रेशन की तरफ इशारा कर रहे हैं। और स्थितियों के इससे भी बदतर होने की आशंका जता रहे हैं। 'हिंदुस्तान टाइम्स' कबीर तनेजा ने पश्चिम एशिया की अर्थव्यवस्था और उसके भारत के असर पर लेख लिखा है जिसमें इसका आकलन किा गया है।
कबीर लिखते हैं कि 80 लाख में से सबसे ज्यादा भारतीय यूएई और सऊदी अरब में काम करते हैं। और इनके द्वारा भारत भेजे जाने वाले पैसे में कोरोना के संकट के बाद 23 फीसदी से ज्यादा की गिरावट आएगी। यह आकलन वर्ल्ड बैंक का है। स्वभाविक है इसका असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। इस साल यहां जाने वाले भारतीय मजदूरों और कामगारों की संख्या में गिरावट भी आई है क्योंकि दुबई एक्स्पो 2020 अगले साल तक के लिए स्थगित हो गया है। केरल ऐसा राज्य है भारत में जहां से पश्चिम एशिया के देशों में सबसे ज्यादा लोग जाते हैं...। इनकी संख्या 15 लाख के करीब है। और ऐसा माना जा रहा है कि लॉकडाउन के बाद इनमें से 4 लाख से ज्यादा कामगार वापस वतन लौटेंगे। ऊपर से तेल की कीमत में गिरावट का अलग ही असर...।
क्या है ग्रेड डिप्रेशन 1929
'द ग्रेट डिप्रेशन' औद्योगिक दुनिया के इतिहास में सबसे खराब आर्थिक मंदी थी। 1929 से लेकर 1939 तक इसका असर रहा था। यानी पूरे 10 साल। अक्टूबर 1929 में स्टॉक मार्केट के क्रैश हो जाने के बाद यह स्थिति पैदा हुई थी जिसने वॉल स्ट्रीट के करोड़ों निवेशकों को डुबा दिया था..। 15 लाख से ज्यादा अमेरिकी बेरोजगार हो गए थे। अमेरिका के आधे से ज्यादा बैंक तबाह हो गए थे।
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