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क्या जानवरों से भी हिंसक और क्रूर हो गया है इंसान?

देश की राजधानी दिल्ली में सरेआम सड़क पर पीट-पीटकर डीटीसी बस के ड्राइवर की हत्या की घटना ने साबित कर दिया है कि इंसान पशुओं से भी ज़्यादा क्रूर और निर्दयी हो गया है। इंसान ने दया, क्षमा और परोपकार की भावनाओं को बिसरा दिया है और हिंसक प्रवृत्ति उसकी आवृत्ति बन गई है। यह कोई पहली घटना नहीं है, जहां इंसान का जानवरों से भी हिंसक और निर्दयी स्वरूप उभरकर समाज के सामने आया हो। इससे पहले दिल्ली का तुर्कमान गेट रोड रेज का गवाह रहा है। अपने आस-पास के माहौल में भी आप पाएंगे कि धैर्य खोकर लड़ना-झगड़ना और एकदम से उग्र हो जाना इंसानी स्वभाव का अहम हिस्सा बनता जा रहा है। बेहद मामूली चीज़ों पर दूसरे की जान ले लेना मानों कोई जुर्म ही न हो?
अखबारों और समाचार चैनलों पर 'मामूली विवाद पर हत्या' की लाइन आम हो गई है। सड़क पर किसी से मामूली-सी बहस में कौन, कब किसकी जान ले ले किसी को नहीं पता? डीटीसी की घटना में अपराधी तो अपने अपराध के लिए दोषी है ही साथ ही मैं मूकदर्शक जनता क्या कम अपराधी है? जनता और कंडक्टर के सामने हेलमेट और ऑक्सीजन सिलेंडर से अशोक को मारा जाता है और लोग तमाशबीन बने रहते हैं।
बस का कंडक्टर भी उतना ही दोषी है। जिसने बीच-बचाव की जरूरत तक महसूस नहीं की। मैंने खुद कई बार लोगों को हल्की-सी टक्कर में बेहद उग्र होते हुए देखा है। कुछ दिन पहले की बात है। मैं अपने स्टॉप पर बस का इंतजार कर रहा था तभी पुराने जमाने की अल्टो कार एक नौजवान शख्स की मोटरसाइकिल से हल्की-सी टकराई।
चौराहा होने की वजह से गलती बाइक सवार नौजवान की थी जिसे कुछ ज़्यादा ही जल्दी थी। नौजवान ने तैश में आकर बीच सड़क पर बाइक खड़ी कर हेलमेट निकाला और सीधे  फिल्मी दृष्य की तरह गाड़ी का दरवाजा खोला और कॉलर पकड़ कर बुजुर्ग को बाहर निकालने लगा। आस-पास मौजूद सब लोग बाइक सवार की हरकतों से क्रोधित होकर उसकी तरफ न टूटते तो वो शायद बुजुर्ग को एक-दो थप्पड़ जड़ भी देता। लेकिन जब उसने देखा कि जनता उस पर हावी हो रही है तो सीधे कॉलर छोड़ रफूचक्कर हो गया। 
दिल्ली के मुंडका इलाके में घटी इस घटना में अगर कोई बीच-बचाव के लिए आता तो क्या पता अशोक की जान बच जाती? क्या पता जनता को अपने पर हावी होते देख विजय का उग्रता खुद के पिटने के भय से शिथिल हो जाती? क्या बस का कंडक्टर अब खुद को अपराधबोध से ग्रसित महसूस नहीं कर रहा होगा। लेकिन, ऐसे अपराधबोध से क्या फायदा जो घटनास्थल पर किसी अप्रिय घटना का प्रतिरोध न कर सके।
हर घटना पर क्यों राजनीति हावी हो जाती है? 
यह बात समझने की जरूरत है कि हमारे राजनेता हर घटना का राजनीतिकरण क्यों कर देते हैं? क्या घटना के राजनीतिकरण से इस तथ्य को नकारा जा सकता है कि दिल्ली में पिछले कुछ वक्त से रोड रेज की घटनाओं में 40 से 50 फीसदी इजाफा हुआ है। परिवहन मंत्री गोपाल राय ड्राइवरों की हड़ताल के लिए बीजेपी को दोष दे रहे हैं तो वही बीजेपी हत्यारे के तार 'आप' से जुड़े होने की आशंका जता रही है। जबकि राजनेताओं को चाहिए कि कम से कम इस तरह की संवेदनशील घटनाओं में तो असंवेदनशीलता न दिखाए। बाकि, जनता खुद इतनी समझदार हो चुकी है कि उसे पता है कि क्या चल रहा है और क्या चलाया जा रहा है?
हालांकि, इस घटना के बाद मृतक के भाई का स्पष्ट कहना है कि रो़डवेज कर्मचारियों की हड़ताल के पीछे किसी पार्टी का हाथ नहीं है। ड्राइवरों का कहना है कि जब आज अशोक के साथ खुलेआम इस तरह की घटना हो सकती है तो कल किसी भी ड्राइवर के साथ हो सकती है। चिंता भी जायज है। अगर ऐसी ही छोटी-छोटी बातों में रोड पर हत्याएं होने लगी तो गाड़ी चलाना तो दूर आम आदमी का रोड पर निकलना भी मुश्किल हो जाएगा। सरकार को चाहिए कि रोड रेज की घटनाओं से निपटने के लिए ठोस कदम उठाया जाए। नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब 'लालबत्ती' भी रोड रेज की घटनाओं का शिकार होने लगेगी। 
इधर, फिर एक उद्वेलित करने वाली घटना सामने आ रही है। अबकी बार आम जनता नहीं बल्कि मित्र पुलिस कटघरे में है। सुप्रीम कोर्ट के पास दिल्ली ट्रैफिक पुलिस के कॉन्स्टेबल सतीश ने रेड लाइट तोड़ने वाली महिला पर ईंट से हमला कर दिया। कॉन्स्टेबल को सस्पेंड कर दिया गया है। 
ललित फुलारा

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