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बाल श्रम के बोझ तले दबा 'मंटुस'

यह सिर्फ 'मंटुस' की कहानी नहीं है! मंटुस जैसे हज़ारों बच्चे इसी तरह बाल श्रम के कार्य में लगे हुए हैं। अच्छे दिन इनके लिए दिवास्वप्न है। मालिक की मार, ज़लालत और भद्दी गालियां रोज की रोटी-पानी! यह फिल्म सिटी का मंटुस है। ऐसा भी नहीं है कि यह सिर्फ अकेला एक मंटुस यहां है। ठेलों और चाय की दुकान पर अनेक 'मंटुस' आपको मिल जाएंगे।


बड़ा चैनल और बड़ी सैलरी से पत्रकारीय ज्ञान और खुद को पत्रकार समझने वाले अनेक बंधु-बांधव बड़े सहज भाव से बेटा बोलकर इनसे सिगरेट और चाय की फरमाइश करते हैं! इस चैनलिया नगरी में बाल श्रम के क्षेत्र में कार्य करने वाले कई दिग्गज रोज आते हैं और टीवी में बड़ी-बड़ी लफ्फाजी करके अपने महंगी और आलीशान कार में इन जैसे मंटुस की आखों के आगे से फुर्र हो जाते हैं।

एक साल में पहली बार मंटुस की आंखों में आज इस कदर उदासी छाई देखी तो बिना कारण पूछे मन रह नहीं पाया। मंटुस के बाल सुलभ मन ने आज मालिक के प्रति बगावत का बिगुल बजा दिया है। हो सकता है अब कुछ ही दिनों में मंटुस मालिक की नौकरी छोड़ अपने घर की तरफ रवाना हो जाए। लेकिन, नई नौकरी खोजने की जद्दोजहद और मालिक के बर्ताव का ख्याल अभी से मंटुस के मन को परेशान करने लगा है।

'इस दुकान पर मेरा आखिरी दिन है सर'

इतने दिनों से मंटुस कभी कुछ नहीं बोला, सौदा लेने- देने और पैसों के हिसाब के अलावा उसके चेहरे पर बस एक हंसी रहती है। मंटुस की इस बात को सुनकर और कुछ जानने की जिज्ञासा हुई और उसके मालिक के दूध लेकर वापस आने तक हम दोनों की गुप्तगू होती रही। मंटुस बिहार के नवादा का रहने वाला है। तीन भाई बहन हैं। माता मानसिक रूप से अस्वस्थ्य है और पिता शराबी है।

यही वजह है मंटुस ने 10-11 साल की उम्र में मां के इलाज के लिए पैसे जुटाने और परिवार के भरण-पोषण के लिए फिल्म सिटी तक सफर तय किया। मंटु का मालिक भी नवादा का ही है, लेकिन हर छोटी-छोटी बात पर उसके मुंह से मंटुस के लिए गाली ही निकलती हैं। इससे पहले तक लगता था कि मंटुस उसका रिश्तेदार या फिर बेटा होगा। पहली बार जब मंटुस के मन ने बगावत की तो असल बात पता चली।

जारी
ललित फुलारा

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